महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित उनकी उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा
स्वामी दयानन्द ने परोपकारिणी सभा की प्रथम स्थापना मेरठ में की। तदर्थ १६ अगस्त १८८० ई. को एक स्वीकार पत्र लिखा तथा उसी दिन मेरठ के सब-रजिस्ट्रार कार्यालय में उसे पंजीकृत कराया गया। इस स्वीकार पत्र में लाहौर निवासी लाला मूलराज को प्रधान तथा आर्यसमाज मेरठ के उपप्रधान लाला रामशरणदास को मन्त्री नियुक्त किया गया था। सभासदों की संख्या १८ थी और स्वामी जी ने इस सभा को अपने वस्त्र, धन, पुस्तक एवं यन्त्रालय आदि के स्वत्व प्रदान किये थे। अन्य प्रतिष्ठित आर्य पुरुषों के अतिरिक्त थियोसॉफिकल -सोसाइटी के संस्थापक-द्वय कर्नल एच. एस. ऑलकाट तथा मैडम एच.सी. ब्लावट्स्की भी इस सभा के सदस्य नियत किये गये।
कालान्तर में जब स्वामी जी १८८३ ई. के आरम्भ में उदयपुर पधारे तो उन्होंने एक अन्य स्वीकार पत्र लिखकर परोपकारिणी सभा का न केवल पुनर्गठन ही किया अपितु उसे उदयपुर राज्य की सर्वोच्च प्रशासिका महद्राज सभा के द्वारा फाल्गुन कृष्णा पञ्चमी १८२९ वि. (२७ फरवरी १८८३ ई.) को पञ्जीकृत भी करवाया।
परोपकारिणी सभा का वास्तविक कार्य तो स्वामीजी के देहावसान के पश्चात् ही प्रारम्भ हुआ। स्वीकार पत्र में स्वामीजी ने परोपकारिणी सभा के सम्मुख निम्न लक्ष्य पूर्ति हेतु रखे थे-
१. वेद और वेदांगादि शास्त्रों के प्रचार अर्थात् उनकी व्याख्या करने कराने, पढऩे पढ़ाने, सुनने सुनाने, छापने छपवाने का कार्य।
२. वेदोक्त धर्म के उपदेश और शिक्षा अर्थात् उपदेशक मण्डली नियम करके देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर में भेज कर सत्य के ग्रहण और असत्य को त्याग करना।
३. आर्यावर्तीय और दीन मनुष्यों के संरक्षण, पोषण और सुशिक्षा का कार्य।
द्वितीय बार सभा की स्थापना करने की आवश्यकता क्यों पड़ी?
ऐसा प्रतीत होता है कि प्रथम स्वीकार पत्र के अनुसार कर्नल ऑलकाट , मैडम ब्लावट्स्की तथा मुरादाबाद निवासी जिन मुन्शी इन्द्रमणि को इस सभा का सभासद बनाया गया था, उनके साथ सैद्धान्तिक मतभेद हो जाने के कारण अब स्वामीजी ने उन्हें अपनी उत्तराधिकारिणी संस्था में रखना वांछनीय नहीं समझा। द्वितीय कारण यह भी हो सकता है कि उदयपुर के महाराणा सज्जन सिंह की वैदिक धर्म में अटूट श्रद्धा तथा उनके माण्डलिक सामन्तों का धर्म प्रेम देखकर स्वामीजी की यह सहज इच्छा हुई कि आर्य जाति के मूर्धाभिषिक्त नरेश केा अपनी स्थानापन्न सभा का अध्यक्ष बनाकर एवं मेवाड़ तथा अन्य राजस्थानी राज्यों के क्षत्रिय सामन्तों को भी इस सभा में सम्मिलित कर उसे अधिक प्रभावशाली तथा व्यापक बनाया जाय। इस बार जो स्वीकार पत्र लिखा गया उसमें सभासदों की संख्या २३ थी। मैडम ब्लैवेट्स्की के अनुसार स्वामीजी को अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था क्योंकि किसी प्रसंग में उन्होंने मैडम से कहा था कि वे १८८३ वर्ष का अन्त नहीं देखेंगे। जो हो इस स्वीकार पत्र के लेखन के आठ मास पश्चात् ही कार्तिक अमावस्या १९४० वि. (३० अक्टूबर १८८३) को महाराज का निधन हो गया।
अजमेर में जिस समय स्वामीजी का परलोक गमन हुआ, उस समय परोपकारिणी सभा के उपमन्त्री पं. मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्या वहीं उपस्थित थे। यद्यपि परोपकारिणी सभा के प्रधान महाराणा सज्जनसिंह ने स्वामीजी के परलोकवासी होने के कुछ दिन पूर्व ही यह सम्मति भेजी थी कि यदि दैवदुर्विपाक से महाराज का शरीर छूटे तो चार-पाँच दिनों तक उनकी अन्त्येष्टि को रोक कर रखा जाय ताकि वे अजमेर आकर श्री महाराज के अन्तिम दर्शन कर सकें, परन्तु स्वीकार पत्र की भावना को ध्यान में रखते हुये तथा व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण ऐसा नहीं किया गया और दूसरे दिन ३१ अक्टूबर को अजमेर के मलूसर श्मशान में स्वामीजी की अन्त्येष्टि कर दी गई।२१ नवम्बर को पण्ड्या जी ने स्वामीजी के द्रव्य, पुस्तक तथा अन्य वस्तुओं की सूची बनाकर उस पर प्रतिष्ठित पुरुषों के हस्ताक्षर कराये तथा सभा मन्त्री के रूप में उन्हें अपने अधिकार में ले लिया।
स्थापना की पृष्ठभूमि
भारतीय धर्म, समाज और संस्कृति के क्षेत्र में पुनर्जागरण की महती प्रक्रिया उस समय प्रारम्भ हुई जब विगत शताब्दी में महान् धर्म संशोधक, समाज संस्कारक तथा नवोदय के ज्योतिर्धर स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्यसमाज की स्थापना के द्वारा देश और समाज में वैचारिक क्रान्ति लाने का सफल प्रयास किया। मथुरा निवासी एक प्रज्ञा चक्षु दण्डी संन्यासी विरजानन्द से शास्त्राध्ययन करने के पश्चात् स्वामी दयानन्द ने भारतीय जीवन में व्याप्त आडम्बर, पाखण्ड, रूढ़िवाद, कदाचार तथा मूढ़ विश्वासों को समाप्त करने हेतु महान् अनुष्ठान आरम्भ किया। अपने प्रयोजन की सिद्धि में जनसाधारण का सहयोग लेने हेतु उन्होंने महानगरी बम्बई में चैत्र शुक्ला पञ्चमी सं. १९३२ वि. (तदनुसार १० अप्रैल १८७५ ई.) को आर्यसमाज की स्थापना की। इस संस्था की स्थापना में उनका प्रमुख लक्ष्य विलुप्त वैदिक विचारधारा का पुन: प्रचार तथा आर्य संस्कृति का सार्वत्रिक प्रसार ही था। ज्यों-ज्यों स्वामीजी धर्म प्रचार तथा समाज संशोधन के गुरुतर भार को अपने सबल कंधों पर लेते गये त्यों-त्यों उनका देशाटन, शास्त्रार्थ विचार, समाज संगठन, ग्रन्थ लेखन आदि का कार्य वृद्धिगत होता गया। वैदिक धर्म के आदर्शों की प्रतिष्ठा तब तक सम्भव नहीं थी, जब तक उसके आधारभूत वेद तथा अन्य पुरातन वाङ्मय का वास्तविक स्वरूप जन समाज के सम्मुख प्रस्तुत न किया जाता। फलत: स्वामीजी ने वेदों के तात्पर्य का उद्घाटन करने के लिये वेद भाष्य लेखन प्रारम्भ किया तथा धर्म के तत्त्वार्थ का निरूपण अपने अन्य मौलिक ग्रन्थों में किया।
सोलह सत्रह वर्षों तक निरन्तर देश, समाज एवं धर्म की सेवा में संलग्न रहने के पश्चात् योग विद्या निष्णात दयानन्द ने अपनी क्रान्तदर्शिता से यह अनुभव कियाकि उनकी जीवन संध्या अधिक दूर नहीं है। अत: परलोक गमन के पश्चात् भी उनके द्वारा प्रारम्भ कार्य सतत होता रहे, उनके द्वारा रचित ग्रन्थों का मुद्रण एवं प्रकाशन निर्बाध गति से चले तथा देश-देशान्तर एवं द्वीप-द्वीपान्तर में धर्म-प्रचार, अनाथ रक्षण, अबला उद्धार आदि के लोकोपकारी कार्य पूरे होते रहें, इस प्रयोजन की सिद्धि के लिये उन्होंने अपनी स्थानापन्न एक सभा की स्थापना की आवश्यकता अनुभव की। फलत: परोपकारिणी सभा का जन्म हुआ।