विषय : देश
शीर्षक : क्या इस देश में हिन्दू होना अपराध है?
लेखक : डॉ. धर्मवीर

            भारतवर्ष की लगभग एक हजार वर्ष की पराधीनता ने न केवल इसका भूगोल ही बिगाड़ा है अपितु इस देश के समाज, संस्कृति व इतिहास को भी भारी क्षति पहुंचाई है। स्वतन्त्रता के पश्चात् लगता था कि हम स्वतंत्र होकर अपना कुछ सुधार कर सकेंगे परन्तु आज जो परिणाम हमारे सामने आ रहे हैं वे हमें पराधीनता के काल से भी आगे ले जाने वाले हैं।
            इस देश की सत्ता पर दो समुदायों ने बाहर से आकर राज्य किया। ये दोनों समुदाय अपने साथ एक विचारधारा, एक भिन्न धर्म, एक अलग संस्कृति भी लेकर आये। जहां देश की शासन और समाज की दुर्बलता ने विदेशी सत्ता को इस देश का शासक बनाया वहीं उसकी मान्यता, धर्म और विचारधारा ने यहां के समाज को अपने-अपने सम्प्रदायों में सम्मिलित किया। यह कार्य यदि स्वेच्छा और समझ से होता तो इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं था, परन्तु इसमें दोनों ओर से अपराध हुआ, इसी कारण आज तक समाज एक नहीं हो सका और सारे देशवासी मिलकर इस देश व इसके इतिहास और संस्कृति को अपना नहीं बना सके।
            विदेशी सत्ता के सहारे जहां इस देश में इस्लाम और ईसाइयत का प्रचार-प्रसार हुआ, वहां हिन्दू समाज की कुरीतियों के कारण समाज के विभाजन की प्रक्रिया को बल मिला। देश की स्वाधीनता के लिए हम देखते हैं कि सभी वर्गों के लोगों ने मिलकर संघर्ष किया, परन्तु देश के स्वतंत्र होने के पश्चात् यहां के समाज को एक नहीं किया जा सका। इसके लिए यहां के राजनेताओं की गलत नीतियां और उनका अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त न होना मुख्य कारण रहा। देश के नाते सभी को एक होना चाहिए था, परन्तु इसके स्थान पर समाज के विभिन्न घटकों ने देश को अपने विचार और सम्प्रदाय के अनुरूप बनाने का प्रयास किया। उसी प्रयास की परिणिति है, साम्प्रदायिक हिंसा विरोधी बिल-२०११।
            हिन्दूसमाज संगठन की दृष्टि से एक नहीं है। इसका कोई एक धार्मिक संगठन नहीं, इनका एक राजनीतिक संगठन नहीं, कोई एक सामाजिक आधार नहीं। इसके विपरीत इसमें छूआछूत, ऊँच-नीच, जन्मगत जातीय श्रेष्ठता आदि बहुत सारे कारण हैं, जिनके रहते इसका बहुसंख्यक होना कुछ भी प्रभाव नहीं रखता। इसके वोटों से सत्ता के बनने-बिगडऩे का खतरा नहीं है। इसके विपरीत ईसाई और मुस्लिम समुदाय धार्मिक दृष्टि से संगठित और सत्ता को बदलने में सक्षम होते जा रहे हैं और सत्ता का प्रश्रय पाकर इनकी यह क्षमता बढ़ती जा रही है। विश्व के दूसरे देशों में भी इनके सहयोगी समर्थक और मार्गदर्शक होने से यह बहुसंख्यक लोगों का देश होकर भी अल्पसंख्यक कहलाने वालों का देश बनता जा रहा है। तभी तो इस देश का प्रधानमंत्री अल्पसंख्यक को इस देश की सम्पत्ति पर पहला हकदार मानता है। 
            यहां के अल्पसंख्यक की चिन्ता विश्वभर में की जाती है परन्तु इस देश के बहुसंख्यक कहलाने वाले हिन्दू को यहां की सरकार अपराधी और हिंसक घोषित कर दण्डित करना चाहती है। देश की सरकार है जिसके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं परन्तु इस सरकार से बड़ी सरकार है भारत सरकार की सलाहकार समिति, जिसकी अध्यक्ष हैं श्रीमती सोनिया गांधी। यह समिति इस देश के हिन्दुओं के विषय में क्या सम्मति रखती है, यह इस साम्प्रदायिक हिंसा निरोधक कानून के प्रारूप को देखने से स्पष्ट होता है। इस कानून का प्रारूप ‘‘प्रिवेन्शन ऑफ कम्युनल एण्ड टारगेटिड वायोलेन्स बिल २०११’’ में दिया गया है।
            इस देश में अनेक बार साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं, बहुत बार राजनेता ही अपने स्वार्थ के लिए समाज को भडक़ाते हैं और कई बार धार्मिक उन्माद उनका कारण होता है। इस देश को स्वतंत्रता विभाजन के आधार पर मिली। इसलिए विभाजन चाहने वाले लोग अपने अनुयायियों को आज भी भडक़ाते हैं। देश छोडक़र जाते समय अंग्रेज ने अपना वरदहस्त ईसाई समुदाय के लिए छोड़ा था, वे आज तक इस देश में रहते हुए उन्हीं को अपना संरक्षक मान बैठे हैं। अत: दोनों वर्ग हिन्दू समाज के साथ आज तक तादात्म्य नहीं बना पाये। इसलिए कभी-कभी संघर्ष की परिस्थिति बन जाती है परन्तु दंगे केवल हिन्दू, मुसलमान या हिन्दू और ईसाइयों में ही होते हैं ऐसा सोचना गलत होगा। दंगे तो शिया, सुन्नी में भी होते हैं और छोटे सम्प्रदायों में आपस में भी संघर्ष हो जाते हैं। ईसाइयों के बीच भी संघर्ष होते रहते हैं। हिन्दुओं के विभिन्न सम्प्रदायों के बीच भी संघर्ष भडक़ जाते हैं।
            इस कारण नियम तो किसी भी प्रकार के संघर्ष को रोकने के लिए बनना चाहिए, जब भी साम्प्रदायिक दंगे होते हैं तो जीवन और सम्पत्ति की हानि होती है। राष्ट्र की इसमें बहुत बड़ी हानि होती है। इसको रोकना शासन और समाज के समझदार लोगों का दायित्व है, परन्तु सरकार इस कानून से साम्प्रदायिक-दंगों को नहीं रोकना चाहती अपितु ईसाई व मुसलमानों को दंगा करने-कराने का अधिकार देना चाहती है। इस कानून से उन्हें कुछ भी करने की स्वतन्त्रता देकर उन्हें निर्भय बनाना चाहती है। सरकार की दृष्टि में साम्प्रदायिक-दंगे केवल हिन्दू करते हैं। इसलिए हर दृष्टि से हिन्दू को दण्डित करना इस कानून का उद्देश्य है। यह बात कानून के प्रारूप में इस प्रकार वर्णित है- यह कानून पूरे देश में और देश से बाहर किये अपराध के लिए भारतीय कानून के अनुसार अपराध करने वाले को दण्डित करने का प्रावधान करता है।
            इसकी परिभाषाओं में विचारणीय बिन्दु है-
          (c) “communal and targeted violence”  means and includes any act or series of acts, whether spontaneous or planned, resulting in injury or harm to the person and or property,  knowingly  directed against  any person by virtue of his or her membership of any group, which destroys the secular fabric of the nation;
            इसमें कहा गया है कि ऐसा कार्य एक बार या लगातार, आकस्मिक या सुविचारित रूप से यदि किसी के द्वारा किया गया जिसके कारण किसी व्यक्ति या सम्पत्ति को नुक्सान होता है क्योंकि वह किसी ग्रुप-समूह से जुड़ा है, उस समूह की रक्षा इस बिल का उद्देश्य है। इस पूरे प्रारूप में सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इस कानून की भावना हिंसा से पीडि़त या प्रताडि़त को न्याय दिलाने की नहीं है अपितु धार्मिक अल्पसंख्यक को हर परिस्थिति में दण्ड से बचाने और उसे अधिकाधिक लाभ दिलाने की है-
      (e) “group” means a religious or linguistic minority,  in any State in  the Union of  India, or Scheduled Castes and Scheduled Tribes within the meaning of clauses (24) and (25) of Article 366 of the Constitution of India;
            इस कानून में जिसको बचाना है उसे ग्रुप-समूह कहा गया है। और समूह की परिभाषा में जो लोग धार्मिक व भाषायी दृष्टि से अल्पसंख्यक हैं उनको समाविष्ट किया गया है, और इसमें आज की स्थितियों के अनुरूप अनुसूचित जाति व जनजातियों को भी सम्मिलित किया गया है।
यह कानून दंगे के समय होने वाले अपराध की व्यवस्था की जिम्मेदारी अंतिम रूप से केन्द्र को देता है। कानून व्यवस्था के नाते जो राज्य सरकार की जिम्मेदारी है, उसे समाप्त कर देता है और केन्द्र को इस बहाने प्रान्तीय अधिकारों का हनन करने का अवसर देता है। इस प्रकार इस कानून से समाज में आज जो कुछ सद्भाव है उसे भी समाप्त करने का कार्य किया जा रहा है।
            इस प्रारूप के उपबन्ध ‘बीस’ के अनुसार संगठित रूप में साम्प्रदायिक लोगों द्वारा किसी समूह को लक्ष्य बनाकर की जाने वाली हिंसा, राज्य के भीतर आन्तरिक उपद्रव के रूप में समझी जायेगी। ऐसी परिस्थिति में केन्द्र सरकार को अनुच्छेद ३५५ के अनुसार सम्बन्धित राज्य में सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू करने का अवसर मिलेगा। इस प्रकार यह कानून अल्पसंख्यकों के हितों के नाम पर राज्य सरकारों को समाप्त करने का काम करेगा।
          20. Power of Central Government in relation to Organised Communal and Targeted Violence.- The occurrence of organised communal and targeted violence shall constitute “internal disturbance” within the meaning of Article 355 of the Constitution of India and the Central Government may take such steps in accordance with the duties mentioned thereunder, as the nature and circumstances of the case so requires. 
            इस कानून के प्रारूप को बनाते समय संविधान की परवाह नहीं की गई है जिसमें भारत को एक धर्म-निरपेक्ष प्रजातन्त्रात्मक राज्य बताया गया है। जहां सरकार बहुमत के आधार पर चुनी जाती है और समस्त जनता को समान भाव से संरक्षण सुविधा प्रदान करना उसका उत्तरदायित्व है। हम बड़े गर्व से कहते हैं कि भारत विश्व का सबसे बड़ा प्रजातन्त्र है, परन्तु यह कानून इसे धार्मिक अल्पसंख्यक लोगों के आधिपत्य का देश बनाने जा रहा है। आज तक इस भारत में जाति व धर्म के चेहरे से न्याय को नहीं जाना जाता है, न ही बहुसंख्यक चेहरा अन्याय का पर्याय समझा जाता है। परन्तु यह कानून कहता है कि अल्पसंख्यक ही अल्पसंख्यक के साथ न्याय कर सकता है इसलिए इस कानून से साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये जो प्राधिकरण गठित किया जायेगा उसके सात सदस्यों में चार सदस्य सदा अल्पसंख्यक समुदाय से होंगे।
          (3) The National Authority shall consist  of a Chairperson, a Vice-Chairperson and five other Members. Provided that, at all times,  not less than four Members, including the Chairperson and Vice-Chairperson, shall belong to a group as defined under this Act.
            इस कानून की धारा ३३ में राष्ट्रीय साम्प्रदायिक-हिंसा विरोधी गतिविधियों को करने के लिए जो प्राधिकरण बनाया जायेगा उसको सरकार द्वारा पुलिस और दूसरी जांच एजेन्सियां उपलब्ध करानी होंगी। इस प्राधिकरण को शिकायत मिलने पर उसकी जांच करने, किसी भवन में घुसने, छापा मारने और खोजबीन करने का अधिकार होगा। यह प्राधिकरण कार्यवाही आरम्भ करने, अभियोजन के लिए कार्यवाही रिकॉर्ड करने, साथ-साथ सरकारों को संस्तुति करने के लिए भी सक्षम होगा। प्राधिकरण के पास सशस्त्र बलों को नियन्त्रित करने की शक्ति होगी। यह प्राधिकरण केन्द्र व राज्य सरकारों को परामर्श जारी कर सकेगा। इस प्राधिकरण के सदस्यों की नियुक्ति प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, दोनों सदनों में विपक्ष के नेता और प्रत्येक मान्यता प्राप्त राजनैतिक दल का नेता करेंगे।
            यह कानून न्याय के नाम पर जहां अल्पसंख्यक समूह के व्यक्ति के अधिकारों की सुरक्षा के लिए चिन्तित है, वहीं जिसके विरुद्ध शिकायत की जा रही है उसके प्रति यह कानून कितना अन्यायपूर्ण दृष्टिकोण रखता है यह जानने योग्य है। कानून कहता है कि समूह के शिकायत-कत्र्ता को सात दिन के अन्दर उसकी शिकायत दर्जी की सूचना उसकी समझने लायक भाषा में देना अनिवार्य है (धारा ६४/११)। साथ ही शिकायतकर्ता की जांच प्रगति रिपोर्ट भी देते रहना होगा (धारा ६९)। समूह के व्यक्ति की सुरक्षा के लिए उसे असाधारण अधिकार और सुविधायें इस कानून में प्रदान की गई हैं। पीडि़त व्यक्ति के बयान न्यायालय में ही लिये जायेंगे, धारा १६४ के अन्तर्गत। जबकि सामान्य रूप से बयान दर्ज करने का कार्य धारा १६१ के अन्तर्गत किया जाता है।
इसी प्रकार केवल मुस्लिम-ईसाई समूह का व्यक्ति यौन शोषण और यौन अपराधों के मामले हिन्दू के विरुद्ध शिकायत दर्ज करा सकेगा।
            इस कानून को बनाते समय बहुसंख्यक को अपराधी और अल्पसंख्यक को निरपराध मानकर दण्ड विधान किया गया है। अल्पसंख्यक समुदाय का कोई व्यक्ति कभी भी तनाव, हिंसा या उपद्रव के लिए उत्तरदायी नहीं होगा। इसलिए बहुसंख्यक समुदाय के द्वारा अल्पसंख्यक का उत्पीडऩ अपराध है, और अल्पसंख्यक यदि बहुसंख्यक के विरुद्ध साम्प्रदायिक हिंसा फैलाते हैं तो वे दण्डनीय नहीं होंगे। यह कानून अपराध को निर्धारण करने का अधिकार भी समूह=अल्पसंख्यक को देता है। वह बतायेगा कि हिन्दू की किस बात से उसे पीड़ा पहुंची है और उसका यह अपराध दण्डनीय होगा। ऐसे अपराधी की सम्पत्ति जब्त की जा सकती है, उसे देश निकाला दिया जा सकता है।
            इस तरह से यह कानून अपराध व अपराधी के मध्य व्यवहार निर्धारित नहीं करता, अपितु अल्पसंख्यक को निरपराध तथा बहुसंख्यक को अपराधी मानकर कार्य करता है। इस कानून की भावना इसके उपबन्ध ७४ से भली प्रकार प्रकट हो जाती है। इसमें कहा गया है यदि किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के विरुद्ध सामुदायिक हिंसा भडक़ाने का आरोप लगाया गया है तो उस व्यक्ति को तब तक दोषी समझा जायेगा जब तक वह न्यायालय में स्वयं को निर्दोष सिद्ध नहीं कर देता।
        74. Presumptions as to offences under this Act.- (1)  If in a prosecution for any offence committed under this Act, it is shown that the accused committed or abetted or conspired to commit the offence of hate propaganda under  section  8, it shall be presumed, unless the contrary is proved, that the offence committed was knowingly directed against a person by virtue of his or her membership of a group.
      (2) Whenever an offence of organized communal and targeted violence is committed and it is shown that a hostile environment against a group exists or the offence of hate propaganda under section 8 was committed against a group, it shall be presumed, unless the contrary is proved, that the said offence was  knowingly directed against persons belonging to the group by virtue of their membership of the group.
            इसी प्रकार शिकायतकर्ता की सुरक्षा के लिए शिकायकर्ता घर से भी शिकायत भेज सकता है। शिकायत कर्ता ने जिस के विरुद्ध शिकायत की है उसे यह कभी नहीं बताया जायेगा कि किसने उसकी शिकायत की है। इतना ही नहीं, न्यायाधीश को निर्देश दिया गया है कि वह अपने निर्णय में शिकायतकर्ता का नाम, पता व पहचान का उल्लेख न करे।
           (a) not mentioning the names and addresses of the witnesses in its orders or judgments or in any records of the case accessible to the public; 
           (b) issuing directions for non-disclosure of the identity and addresses of the witnesses;
           (c) immediately dealing with any complaint of harassment of a victim, informant or witness and on the same  day, pass appropriate orders for protection;
           Provided that inquiry or investigation into the complaint received under clause (c) shall be tried separately from the main case by the Designated Judge and concluded within six months from the date of receipt of the complaint;
Provided further that where the complaint under clause (c) is against any public servant, the court shall forthwith restrain such public servant from interfering with the  victim, informant or witness, as the case may be, in any matter related or unrelated to the pending case, except with the specific permission of the Designated Judge.
            यह प्राधिकरण साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान कानून व्यवस्था के लिए लगाये गये प्रशासनिक अधिकारियों को भी दोषी ठहरा कर दण्डित कर सकता है (६७)।
            यहां प्रश्न उठता है कि यह कानून न्याय के लिए बनाया जा रहा है या न्याय की हत्या के लिए? वस्तुत: यह कानून साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये नहीं बनाया जा रहा है अपितु धर्मान्तरण के कारण होने वाले सामाजिक असन्तोष को दबाकर धर्मान्तरण करने वालों को उत्साहित करने के लिए बनाया जा रहा है। इस प्रकार यह कानून न्याय-भावना, प्रजातान्त्रिक अधिकार, बहुसंख्यक नागरिकों के मौलिक अधिकार एवं स्वतंत्रता का हनन करने वाला है और भारत के धर्म-निरपेक्ष प्रजातन्त्र के सिद्धान्त के विरुद्ध है। 
            अपराधी को अपराधी की भावना से देखा जाना चाहिए, न कि धर्म या समुदाय की भावना से। अपराध के अनुसार सभी अपराधियों को कठोर दण्ड दिया जाना उचित है, परन्तु धर्म या समुदाय के नाम पर किसी को कठोर दण्ड विधान करना और दूसरे को अपराध करने पर भी दण्ड के योग्य न समझना, यह भावना शासन और न्याय के विरुद्ध होने से इस देश की जनता को स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए। इसलिए मनु महाराज कहते हैं कि दण्ड कठोर तो होना चाहिए परन्तु शासन की दृष्टि में न्यायपूर्ण अवश्य होना चाहिए।
            यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्चरति पापहा।
            प्रजास्तत्र न मुह्यन्ति नेता चेत् साधुपश्यति।।
                                                                        - धर्मवीर
                                                        परोपकारी (जुलाई द्वितीय २०११)