अजमेर में आनासागर सुरम्य तट पर स्थित यह आश्रम अत्यन्त रमणीय है। यह आश्रम परोपकारिणी सभा द्वारा संचालित किया जाता है। इस आश्रम में ही परोकारिणी सभा की अधिकांश गतिविधियाँ संपन्न होती हैं। आश्रम के परिसर में ऊँची अट्टालिकाओं से युक्त 7 भवन हैं।
1. महर्षि दयानन्द अनुसन्धान भवन ( आचार्य डॉ. धर्मवीर अनुसन्धान केन्द्र )- इस चार मंजिला भवन में वेद वेदांगों के पठन-पाठन हेतु 'महर्षि दयानन्द आर्ष गुरुकुल' का सञ्चालन किया जाता है।
2. स्वामी ओमानन्द संन्यास आश्रम- इस भवन में भी चार मंजिलें हैं। यहाँ साधु-संन्यासियों एवं वानप्रस्थियों के आवास का प्रबन्ध रहता है।
3. पण्डित लेखराम अतिथिशाला- आगन्तुक अतिथियों, विद्वत् महानुभावों के ठहरने के लिए इस भवन के प्रकोष्ठ उपयोग में लिए जाते हैं।
4. श्री सीताराम पंसारी भवन / योग मन्दिर- श्री सीताराम पंसारी के सहयोग से निर्मित यह भवन भोजनशाला के रूप में है। ऊपर के तल योग मन्दिर के नाम से जाने जाते है। इसमें शिविरों आदि में आवास व्यवस्था एवं कक्षाओं का आयोजन होता है। विशिष्ट अतिथियों हेतु चार वातानुकूलित प्रकोष्ठों के साथ कई अन्य प्रकोष्ठ भी हैं।
5. गौशाला भवन- गौशाला के ऊपर निर्मित 20 प्रकोष्ठ अतिथियों एवं स्थायी आश्रमवासियों के आवास हेतु कार्य में लिए जाते हैं।
6. छः दीर्घ प्रकोष्ठ (फ्लैट) वाले इस भवन के प्रकोष्ठ विशिष्ट अतिथियों हेतु आरक्षित रहते हैं।
7. स्वामी दयानन्द सरस्वती भवन- मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही दिखाई देने वाले इस भव्य भवन में महर्षि दयानन्द सरस्वती की वस्तुओं को संग्रहालय के रूप में रखा गया है। ध्यान योग शिविरों के आयोजन के लिए भी इस भवन का प्रयोग किया जाता है।
इस पूरे परिसर के बीचों-बीच सुन्दर बृहद यज्ञशाला है, जिसमें प्रतिदिन प्रातः सायं दोनों समय यज्ञ-सत्संग का आयोजन किया जाता है। हरी घास वाला विस्तृत उद्यान इस आश्रम की शोभा को और अधिक रमणीय बना देता है।
जिस भूमि पर यह आश्रम है, वह शाहपुरा नरेश सर नाहरसिंह ने परोपकारिणी सभा को प्रदान की थी। कहा जाता है कि महर्षि के अन्त्येष्टि संस्कार के पश्चात् उनकी राख को इस उद्यान में बिखेरा गया था और उनकी अस्थियों को एक स्थान पर गाड़ दिया गया था, उसी स्थान पर ऋषि उद्यान की केन्द्ररूप यज्ञशाला स्थित है।
परोपकारिणी सभा का निर्माण करते समय समय दयानन्द सरस्वती ने सभा के लिए तीन उद्देश्य रखे थे, जिनमें पहला ही उद्देश्य रखा- वेद और वेदांग आदि शास्त्रों का प्रचार अर्थात् उनकी व्याख्या करना-कराना, पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना, छापना-छपवाना आदि।
इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ऋषि उद्यान आश्रम के प्रांगण में परोपकारिणी सभा द्वारा आर्ष पद्धति से गुरुकुल का सञ्चालन किया जाता है। इस गुरुकुल की स्थापना परोपकारिणी सभा के पूर्व प्रधान स्मृतिशेष डॉ. धर्मवीर जी द्वारा की गई थी। गुरुकुल में संस्कृत व्याकरण, दर्शन, महर्षिकृत ग्रन्थ एवं अन्य आर्ष ग्रंथों का अध्ययन कराया जाता है। महर्षि दयानन्द अनुसन्धान भवन में गुरुकुल के विद्यार्थियों के आवास की व्यवस्था है। गुरुकुल में विद्यार्थियों के आवास, भोजन, वस्त्र, अध्ययन एवं चिकित्सा आदि का सम्पूर्ण व्यय परोपकारिणी सभा द्वारा किया जाता है। सारी व्यवस्था पूर्ण रूप से निःशुल्क प्रदान की जाती हैं। विद्यार्थियों का प्रवेश एवं अध्ययन सम्बन्धी व्यवस्थाएं मुख्य आचार्य की देख-रेख में की जाती हैं। शास्त्रों की रक्षा एवं उनके प्रचार-प्रसार के लिए यह सभा के महत्त्वपूर्ण प्रकल्पों में से एक है।
महान् युगपुरुष महर्षि दयानन्द ने उन्नीसवीं शताब्दी में वेदों पर भाष्य रचना कर, तथा धार्मिक जगत में अपूर्व क्रांति उपस्थित करने वाले सत्यार्थ प्रकाश, संस्कार विधि एवं ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका आदि ग्रन्थों का प्रणयन कर वैदिक वाङ्मय के इतिहास में नवीन युग का आरम्भ किया था। तब से लेकर आज तक वैदिक पुस्तकालय महर्षि के सभी ग्रन्थों के प्रामाणिक तथा अधिकृत संस्करणों का प्रकाशन कर रहा है। वैदिक यन्त्रालय की स्थापना स्वामी जी ने इसी प्रयोजन से की थी कि इसके माध्यम से वेदादि शास्त्र तथा अन्य ऋषिकृत ग्रन्थ और उनके महत्त्वपूर्ण भाष्य, टीका, व्याख्या आदि जनसाधारण को उपलब्ध होते रहें।
वैदिक पुस्तकालय, अजमेर अपनी इसी गौरवशाली परम्परा का निर्वाह करता हुआ उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक से इसी कर्त्तव्य की पूर्ति में संलग्न है। यहाँ महर्षि दयानन्द के वेदभाष्य, वेदांगप्रकाश, ऋषि दयानन्द के पत्र आदि ग्रन्थों के अतिरिक्त डॉ. धर्मवीर द्वारा सम्पादित वेदगोष्ठी, डॉ. धर्मवीर द्वारा लिखित एवं अन्यान्य वैदिक विद्वानों के विभिन्न विषयों से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण शोध-पुस्तकें भी विक्रयार्थ उपलब्ध हैं। थोक पुस्तक विक्रेताओं तथा अन्य सभी ग्राहकों को समान कमीशन दिया जाता है।
'परोपकारी पत्रिका' परोपकारिणी सभा का मुखपत्र है। यह पाक्षिक अर्थात १५ दिन में प्रकाशित होता है। इसमें वैदिक सिद्धान्तों पर आर्य विद्वानों के शोधपरक लेखों का प्रकाशन होता है। सम्पादकीय लेख में समाज की सामयिक घटनाओं आर्यसमाज का दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जाता है। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु का स्तम्भ लेख 'तड़प-झड़प' इतिहास के तथ्यों से परिचय करने साथ-साथ वेद विरोधियों की आपत्तियों का सटीक उत्तर देकर आर्य जगत की निरन्तर सेवा कर रहा है। वैदिक सिद्धान्तों से सम्बन्धित शंकाओं/जिज्ञासाओं का समाधान 'शंका-समाधान' स्तम्भ के अन्तर्गत वैदिक वाङ्मय के विद्वान डॉ. वेदपाल द्वारा किया जाता है। आर्यसमाज के प्रारम्भिक गम्भीर विद्वानों के ज्ञान एवं विद्या को 'ऐतिहासिक कलम से' शीर्षक द्वारा पाठकों तक पहुँचाया जाता है। अध्यात्म ज्ञान का प्रवाह लिए आचार्य धर्मवीर जी की प्रवचन श्रृंखला पाठकों को सहज ही आकर्षित करती है। इनके अतिरिक्त 'पाठकों के विचार, पाठकों की प्रतिक्रियाएँ' पत्रिका के प्रकाशन में सिंहावलोकन का अवसर प्रदान करती हैं। संस्था समाचार, आर्यजगत के समाचार इस पत्रिका को और अधिक रुचिकर बनाते हैं।
परोपकारी पत्रिका का इतिहास - परोपकारिणी सभा के द्वितीय अधिवेशन में सभा की ओर से सभा का मुखपत्र निकलने का निर्णय लिया गया, जिसका नाम 'परोपकारी' रखा गया। पत्र को षण्मासिक एवं हिंदी भाषा में रखा गया।इस पत्र का प्रथम अंक कार्तिक शुक्ला १ संवत १९४६ वि. (1889) में प्रकाशित हुआ, जिसका वार्षिक मूल्य १ रुपया निर्धारित हुआ। इसका दूसरा अंक भी प्रकाशित हुआ, परन्तु उसके बाद इसका प्रकाशन रुक गया। १९०६ ई. के अधिवेशन में इसे मासिक रूप से पुनः प्रकाशित करने का निश्चय हुआ। प्रथम वर्ष में संपादन कार्य सभा के उपमंत्री श्री भक्तराम ने किया। द्वितीय वर्ष के प्रथम अंक से परोपकारी का संपादन कार्य हिंदी के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार पण्डित पद्मसिंह शर्मा ने स्वीकार किया। शर्मा जी के संपादन काल में पत्र की अभूतपूर्व उन्नति हुई। शर्मा जी के संपादन में इस पत्र के आठ अंक ही निकल सके। संपादन कार्य का भार पुनः श्री भक्तराम के पास आया। नवम्बर १९०९ के अधिवेशन में पत्र का प्रकाशन बंद कर दिया गया। लगभग अर्धशताब्दी के बाद नवम्बर १९५९ ई. (कार्तिक २०१६ वि.) में यह पत्र पुनः प्रारम्भ किया गया। तब से अब तक यह पत्र निरन्तर समाज व सिद्धान्तों की सेवा कर रहा है। महर्षि दयानन्द बलिदान शताब्दी समारोह १९८३ में एक और व्यक्तित्व परोपकारिणी सभा से जुड़ा- डॉ. धर्मवीर। डॉ. साहब ने परोपकारी पत्रिका के सम्पादन का कार्य संभाला और इसे आर्यजगत की सर्वोच्च पत्रिका बना दिया। उनके सम्पादन काल में परोपकारी ने पाँच सौ से पन्द्रह हजार सदस्यों की यात्रा की। उनके सम्पादकीयों ने समाज में हलचल पैदा कर दी। राजनीति, आतंकवाद, अनाचार, सिद्धांत, दर्शन आदि सभी विषयों पर उन्होंने लिखा। विश्वभर में चल रही गतिविधियों पर उनकी पैनी नज़र रहती थी। डॉ. धर्मवीर जी ने परोपकारी के माध्यम से आजीवन साहित्य, समाज एवं देश की सेवा की। अक्टूबर २०१६ में इहलोक की लीला समाप्त कर स्वयं को अमर कर गए। उनकी मृत्यु के पश्चात् सभा के संयुक्त मंत्री डॉ. दिनेशचंद्र शर्मा को सम्पादक नियुक्त किया गया, जो कि वर्तमान में भी पत्रिका के सम्पादक का कार्यभार संभाल रहे हैं।