विषय : महर्षि दयानन्द
शीर्षक : उलटे को उलट दिया महर्षि ने
लेखक : इन्द्रजित् देव

            आज से अढ़ाई सहस्र वर्ष पूर्व महात्मा बुद्ध ने अपने समय की सामाजिक व पारिवारिक अवस्था देखकर पण्डितों से प्रश्न किया था ''संसार में पीड़ा, दु:ख व क्लेश आदि देखकर मैं पूछता हूँ कि ये सब क्यों हैं? यदि यह संसार ईश्वर ने बनाया है व वही चला रहा है तो वह अच्छा ईश्वर नहीं है क्योंकि वह संसार के दु:खी प्राणियों को दु:खी ही रहने देता है। ऐसे ईश्वर की उपयोगिता व आवश्यकता ही नहीं है। तुम कहते हो कि ईश्वर सब कुछ कर सकता है क्योंकि वह सर्वशक्तिमान् है। सब कुछ कर सकने की क्षमता रखते हुए भी वह दु:ख दूर नहीं करता तो मानना पड़ेगा कि वह है ही नहीं।"
            अमर बलिदानी भक्त सिंह ने भी यह प्रश्न किया था- ''तुम कहते हो कि ईश्वर सर्वशक्तिमान् है। यदि वह सब कुछ कर सकता है तो संसार में रोग व कष्ट क्यों हैं? ईश्वर ने ब्रिटेन के आक्रान्ताओं को भारत में आने से रोका क्यों नहीं? भारतवासियों का शोषण व अत्याचार करने से ईश्वर अंग्रेजों को हटाता क्यों नहीं?"
            जवाहर लाल नेहरू के भी ऐसे ही विचार थे- ''निश्चय ही सृष्टि के मूल में कोई बड़ा दोष है जिससे संसार में व्याप्त अव्यवस्था व दु:खादि के पीछे प्रयोजनकत्र्ता के होने में ही मुझे सन्देह होता है।"
            आज भी अनेकानेक व्यक्ति आपको ऐसा चिन्तन करने वाले मिल जाएंगे। प्रश्नकत्र्ताओं को सही उत्तर न मिलने से वे नास्तिक हो जाते हैं। बुद्ध, भक्त सिंह व जवाहर लाल नेहरू भी ऐसे ही व्यक्ति हुए हैं। ईश्वर की व्यवस्था, जीवों को कर्म करने की स्वतंत्रता व सर्वशक्तिमान् शब्द का सही अर्थ न समझकर ऐसे लोगों का नास्तिक हो जाना स्वाभाविक ही है। कथित विद्वानों व आस्तिकों ने ऐसे प्रश्नों के जो उत्तर दिए व देते हैं, वे उत्तर सत्य व तर्क के विपरीत हैं। अत: नास्तिकों को हम दोषी न ठहराकर कथित विद्वानों व आस्तिकों को ही दोषी मानते हैं। ऐसे उत्तर इस लिए प्रस्तुत किए जाते थे कि वैदिक मान्यताओं की गहराई व सच्चाई तक पहुँचने की इच्छा, पुरुषार्थ व क्षमता ही कथित विद्वानों में समाप्त हो गई थी। परिणामत: वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों के विपरीत मन चाही व्याख्याएं व मनचाहे अर्थ प्रचारित किए गए थे। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि वैदिक-धर्म रूपी गिलास सीधा पड़ा था परन्तु इन कथित पण्डितों, आस्तिकों, आचार्यों व विद्वानों ने उलटा कर दिया था। इसे सीधा करने की बात तो दूर की है, इस उलटे पड़े गिलास को सीधा पड़ा ही मानते रहे तथा नादान लोगों से मनवाते भी रहे।
            इस स्थिति में महर्षि दयानन्द सरस्वती का जन्म हुआ। उन्होंने उलटा पड़े गिलास को देखा व अपनी साधना, स्वाध्याय, पुरुषार्थ तथा ज्ञान से इसे सीधा कर दिया। स्वार्थी, मूर्ख, दुराग्रही, हठी धर्माचार्यों तथा अविद्यादि से ग्रस्त सामान्य लोगों ने यह प्रचारित कर दिया कि महर्षि ने जो भी कहा, लिखा व प्रचारित किया है, वह सत्य के उलट कहा, लिखा व प्रचारित किया है। ये मान्यताएं व शिक्षाएं वास्तविकता व सत्य के विपरीत हैं। ऐसे लोगों से हमारा निवेदन यह है कि उलटी पड़ी वस्तुओं को उलटे बिना सीधा किया ही नहीं जा सकता। महर्षि ने यदि यह काम कर दिया तो क्या अपराध किया? उलटी रखी थाली, पुस्तक, चारपाई अथवा गिलास आदि से उचित व सही लाभ आप तब तक प्राप्त नहीं कर सकते, जब तक आप इन्हें सीधा न रखेंगे। सृष्टि, सृष्टि के कत्र्ता व व्यवस्थापक को ठीक-ठीक सीधा-सुलटा समझे बिना हम इनके प्रति न्यायपूर्वक, उचित व सत्य व्यवहार नहीं करते। फलत: इनसे उचित व प्राप्तव्य लाभ प्राप्त नहीं कर पाते।
            'सर्वशक्तिमान्' ईश्वर है परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं था कि वह सब कुछ कर सकता है। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी अपने क्रांतिकारी ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' के सप्तम समुल्लास में इस सम्बन्ध में लिखते हैं-
            प्रश्न - ईश्वर सर्वशक्तिमान् है, वा नहीं?
            उत्तर - है। परन्तु जैसा तुम 'सर्वशक्तिमान्' शब्द का अर्थ जानते हो, वैसा नहीं। किन्तु 'सर्वशक्तिमान्' शब्द का यही अर्थ है कि ईश्वर अपने काम अर्थात् उत्पत्ति, प्रलय आदि, और सब जीवों के पुण्य-पाप की यथायोग्य व्यवस्था करने में किंचित् भी किसी की सहायता नहीं लेता। अर्थात् अपने अनन्त सामर्थ्य से ही सब अपना काम पूर्ण कर लेता है।"
            यदि ईश्वर के सर्वशक्तिमान् होने का यह प्रचलित अर्थ लिया जाए कि ईश्वर सब कुछ कर सकता है तो अनेक प्रश्न उठते हैं जो मनोरंजक ही नहीं, तर्कसंगत हैं व जिनके उत्तर किसी के पास नहीं हैं। इनमें से कुछ हैं:-
            १. संसार में ३ पदार्थ अनादि हैं- ईश्वर, जीव व प्रकृति। ईश्वर सब कुछ कर सकता है तो क्या वह सृष्टि के मूल उपादान कारण (=प्रकृति) व जीव को भी उत्पन्न कर सकता है? उत्तर है- इन्हें उत्पन्न नहीं कर सकता क्योंकि ये दोनों अनादि हैं, इन्हें कोई भी उत्पन्न नहीं कर सकता।
            २. क्या ईश्वर जल को अग्नि व अग्नि को जल बना सकता है?
            ३. क्या परमात्मा मनुष्य योनि की आयु ४०० वर्षों से अधिक कर सकता है?
            ४. क्या वह आत्महत्या कर सकता है?
            ५. क्या वह मेरी (जीवात्मा की) हत्या कर सकता है?
            ६. क्या वह अत्याचार कर सकता है?
            ७. क्या वह जीवों को सर्वव्यापक सर्वज्ञ बना सकता है?
            ८. बिना प्रकृति क्या सृष्टि बना सकता है?

            ९. क्या वह स्वयं जड़ बन सकता है?
            १०.  क्या वह स्वयं मूर्ख व अज्ञानी बन सकता है?
            ११. क्या वह दो बच्चों की माता को कुंवारी कन्या बना सकता है?
            १२. क्या वह अन्याय कर सकता है?
            १३. क्या वह पाप क्षमा कर सकता है?
            १४. क्या वह अपने जैसा दूसरा ईश्वर बना सकता है? यदि कोई कहे कि नहीं बना सकता तो 'सब कुछ कर सकने वाले को ईश्वर' मानने वालों की बात स्वत: ही ढह जाती है। यदि कोई कहे कि हाँ, वह दूसरा ईश्वर बना सकता है, तो उन्हें बताना पड़ेगा कि उस स्थिति में किस ईश्वर की व्यवस्था व इच्छा चलेगी? प्रथम ईश्वर की व्यवस्था व इच्छा चलेगी तो दूसरे की आवश्यकता व लाभ ही क्या होगा? क्या तब दोनों ईश्वरों में विवाद नहीं होगा? होगा ही। तब निर्णय करने हेतु तीसरा ईश्वर चाहिए। कनिष्ठ व वरिष्ठ ईश्वरों में सदैव का विवाद रहेगा।
            १५. बच्चे खेल में मिट्टी-गारे की ऐसी ईंट बना सकते हैं, जो स्वयं उनसे भी नहीं उठती। क्या ईश्वर भी यह काम कर सकता है? यदि कहें कि वह ऐसी ईंट नहीं बना सकता तो वही न बना सकने की अशक्ति की बात हो गई। यदि कहें कि बना सकता है, तो उसे उठा न सकने की बात आ गई। 'सब कुछ कर सकने वाला' ईश्वर दोनों स्थितियों में नहीं होगा- उभयत: पाशा रज्जू:।
            १६. किसी कारखाने के स्वामी की इच्छा के विरुद्ध कार्य करने वाले कर्मचारी को स्वामी अपने कारखाने से बाहर निकाल सकता है। यही बात राजा पर भी लागू होती है। राजा अपने आदेश-इच्छा के विपरीत कार्य करने वाले किसी भी नागरिक को अपने राज्य से बाहर निकाल सकता है। इसे ''देश-निकाला" भी कहते हैं। इतिहास में ऐसी घटनाएं पढऩे को मिलती हैं। अंग्रेजों ने लाला लाजपत राय व सरदार अजीत सिंह को भारत से निष्कासित कर दिया था। बंग्लादेश की बंगला लेखिका तस्लीमा नसरीन को इस्लाम की कुछ मान्यताओं के विरुद्ध लिखने पर वहाँ की सरकार ने अपने देश से निकाल रखा है। वह बेचारी इस-उस पराये देश में रहकर जीवन व्यतीत कर रही है। जनता पार्टी के राज में मिज़ोरम के देशद्रोही नेता फीज़ो को तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने भारत से बहिष्कृत किया था। ऐसे अन्य कई उदाहरण भी मिलते हैं। 
हमारा प्रश्न है कि क्या ईश्वर, जो राजाओं का भी राजा है, किसी ऐसे मनुष्य को, जो उसके बनाए संविधान वेद के विपरीत आचरण करता है, अपने राज्य से बाहर निकाल सकता है? उत्तर में 'नहीं' कहोगे तो 'सब कुछ कर सकने वाला सर्वशक्तिमान्' ईश्वर न रहेगा तथा यदि 'हाँ ' कहोगे तो वह सर्वव्यापक नहीं रहेगा। आखिर परमात्मा किसी व्यक्ति को 'अपने घर से बाहर' कहाँ निकालेगा? क्या सर्वव्यापक ईश्वर किस स्थान, किस हृदय, किस देश अथवा किस घर में नहीं रहता?
            इस प्रकार के अन्य अनेक प्रश्न हैं, जो सर्वशक्तिमान् का सही अर्थ समझे बिना उठेंगे। समाधान के रूप में निवेदन यह है कि महर्षि दयानन्द सरस्वती महाराज ने उलटे प्रचलित अर्थों व मान्यताओं को उलटकर सही व सीधा कर दिया है। बुद्ध से लेकर महर्षि तक का काल लगभग २५०० वर्षों का काल है। सर्वशक्तिमान् का सही अर्थ व बुद्ध द्वारा उठाए गए पूर्वोक्त प्रश्नों के सही उत्तर किसी गुरु, किसी संन्यासी, मठाधीश, किसी शंकराचार्य, किसी पण्डित अथवा किसी पुजारी ने नहीं दिए। महर्षि दयानन्द ने कहा- वह यथायोग्य व्यवस्था करने में किंचित् भी किसी की सहायता नहीं लेता अर्थात् अपने अनन्त सामथ्र्य से ही सब अपना काम पूर्ण कर लेता है।
            ''सत्यार्थ प्रकाश" के अष्टम समुल्लास में वे लिखते हैं- जो स्वाभाविक नियम अर्थात् जैसा अग्नि उष्ण, जल शीतल और पृथिव्यादि सब जड़ों को विपरीत गुण वाला ईश्वर भी नहीं कर सकता। और ईश्वर के नियम सत्य और पूरे हैं, इसलिए परिवर्तन नहीं कर सकता। इसलिए 'सर्वशक्तिमान्' का अर्थ इतना ही है कि ''परमात्मा बिना किसी के सहाय के अपने सब कार्य पूर्ण कर सकता है।"
वे कौन-से कार्य हैं, जो ईश्वर के करणीय हैं, उन्हें भी समझना चाहिए। वे निम्नलिखित हैं:-
            १. सृष्टि की उत्पत्ति करना।
            २. सृष्टि को व्यवस्था में रखना।
            ३. चार अरब बत्तीस करोड़ वर्षों के बाद सृष्टि का संहार करना।
            ४. सृष्टि के आरम्भ में वेद-ज्ञान मनुष्यों को देना।
            ५. सब जीवों को उनके कर्मों के अनुसार फल देना।
            इन पाँच कर्मों से अधिक एक भी अन्य कार्य ईश्वर नहीं कर सकता, न ही वह करता है तथा इन्हें करने के लिए वह किसी अन्य की सहायता नहीं लेता।
            इस विश्लेषण के आधार पर कुछ तथ्य उभर कर हमारे सामने आते हैं तथा कुछ प्रचलित अन्धविश्वास धड़ाम से नीचे गिरते हैं। यथा मृत्यु के अवसर पर यमराज को भेजकर ईश्वर जीवात्मा को बुलाता है। यदि यह सत्य मान लिया जाए तो ईश्वर सर्वान्तर्यामी व सर्वव्यापक नहीं रहेगा। सर्वान्तर्यामी व सर्वव्यापक ईश्वर उस आत्मा में भी होता ही है जिसे मृत्यु के बाद ईश्वर तक पहुँचाने के लिये किसी की सहायता नहीं चाहिए। महर्षि ने कहा कि प्रभु अपने काम स्वयं करता है, यही उसकी सर्वशक्तिमत्ता है।
            दूसरा अन्धविश्वास जो ढह जाता है, वह अवतारवाद का है। अवतारवाद पर विश्वास करने वालों का यह मानना है कि पापियों को मारने के लिए ही ईश्वर अवतार लेता है। जब वह 'सब कुछ कर सकता है' तो हर्ट अटैक करके पापियों को मार क्यों नहीं देता? कारण रूप प्रकृति से बनी कार्यरूप सृष्टि से बने रज व वीर्य तथा इनको धारण करने वाले स्त्री-पुरुष (=माता-पिता) की सहायता ही क्यों लेता है? 'अवतार रूपी पुरुष' बनकर पापियों को मारने के लिए?
            अवतारवाद के गलत सिद्धान्त को अन्य तर्कों से भी काटा जा सकता है परन्तु हम इस लेख में क्योंकि ईश्वर की शुद्ध व सही सर्वशक्तिमत्ता पर ही विचार कर रहे हैं, अत: यहाँ इस सम्बन्ध में इतना ही निवेदन करते हैं कि सही अर्थों में सर्वशक्तिमान् का अर्थ समझने से अवतारवाद की मान्यता भी गिर जाती है। 'सर्वशक्तिमान्' का सही अर्थ समझने से इन तीन असत्य मान्यताओं के अतिरिक्त अन्य भी कुछ मान्यताएँ असत्य सिद्ध होती हैं (जिनका वर्णन विस्तारभय के कारण हम यहां नहीं कर रहे) परन्तु महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज के प्रति अपनी विनम्र व हार्दिक कृतज्ञता अवश्य व्यक्त करते हैं जिनसे पूर्व कई मान्यताएं गलत तथा उलटी प्रचलित थीं परन्तु उन्होंने उलटकर सीधा कर दिया व ईश्वर का सच्चा स्वरूप प्रस्तुत किया ताकि भ्रान्त व अन्धविश्वासी लोग सच्चे ईश्वर भक्त बनकर उससे वाञ्छनीय लाभ भी प्राप्त कर सकें।
            ईश्वर नियमानुसार ही सृष्टि चला रहा है तो इसमें उसकी महत्ता ही क्या है? इसका उत्तर यह है कि उसकी महत्ता सृष्टि के नियमों का पालन स्वयं करने और जीवों द्वारा इन का पालन कराने में ही है। इनका उल्लंघन करने अथवा कराने में नहीं है। यदि नियामक ही नियमों का उल्लंघन करने लगेगा तो वह नियामक कहाँ रहेगा? इसे यूँ समझिए- राष्ट्र का संविधान बना हो तो उसकी अवहेलना न राष्ट्रपति को करनी चाहिए, न ही प्रजा को। प्रजा व राजा को संविधान में रहने व रखने से ही राष्ट्र में शान्ति व व्यवस्था स्थिर रहती है। यदि कोई साधारण व्यक्ति, अधिकारी या न्यायाधीश भी उल्लंघन करेगा तो उच्चतम न्यायालय उसे दण्ड देगा ही।
            यदि कर्म करने की स्वतंत्रता की दुहाई राष्ट्रपति अथवा आतंकवादी देने लगेंगे तथा अपनी इच्छानुसार आचरण भी करने लगेंगे तो राष्ट्र में व्यवस्था, सुख, शान्ति, सौमनस्य तथा उन्नति कहाँ रहेगी? लौकिक सरकारों के संविधानों में परिवर्तन या संशोधन होते ही रहते हैं। २६ जनवरी , १९५० ई. से लागू भारतीय संविधान में लगभग एक सौ संशोधन हो चुके हैं तथा भविष्य में और भी होंगे ही परन्तु ईश्वर ने सृष्टि बनाने चलाने व संहार (=प्रलय) करने तथा जीवों को वेद ज्ञान देने तथा जीवों के कर्म करने की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप न करके, उनको उनके कर्मों का उचित व न्यायपूर्वक फल देने के अपने नियमों (=संविधान) व विधियों में तनिक भी परिवर्तन नहीं किया तथा न ही करेगा। इस प्रकार की माँग करना व इच्छा पालना ईश्वर को पक्षपाती, अल्पज्ञ व अन्यायकारी मानने के तुल्य है। ऐसा हो ही नहीं सकता व ऐसी करना अपूर्णता का द्योतक है।
            अन्त में नास्तिकों की इस जिज्ञासा को शान्त करने का नन्हा-सा प्रयास है कि न्यायकारी व सर्वशक्तिमान् ईश्वर के होते हुए भी संसार में दु:ख, क्लेश, अव्यवस्था तथा कष्ट क्यों हैं? उत्तर में निवेदन यह है कि संसार में जितनी भी आत्माएँ हैं, वे स्वभाव से ही कर्म करने में स्वतंत्र हैं परन्तु फल व परिणाम भोगने एवं कर्मों से प्रभावित होने में परतंत्र हैं। जीवात्माएँ अपने संस्कारों व विचारों के अनुसार ही कर्म करती हैं। ईश्वर आत्माओं में रहकर बुरे कर्म करने से पूर्व भय, लज्जा व शंका ही उत्पन्न करके बुरे कर्मों से बचने की प्रेरणा देता है। हमारा हाथ पकड़कर वह रोकता नहीं, रोक भी नहीं सकता। अपने हाथों से मैं किसी को दान दूँ अथवा किसी की जेब काट लूँ इसका निर्णय मैंने करना है, ईश्वर ने नहीं। इस सम्बन्ध में महर्षि दयानन्द ''सत्यार्थ प्रकाश" के सप्तम समुल्लास में लिखते हैं- अपने कत्र्तव्य कर्मों में स्वतंत्र और ईश्वर की व्यवस्था में परतंत्र है। 'स्वतंत्र: कर्ता' यह पाणिनीय व्याकरण का (=अष्टाध्यायी १/४/५४) सूत्र है। जो स्वतंत्र अर्थात् स्वाधीन है, वही कत्र्ता है। जिसके आधीन शरीर, प्राण, इन्द्रिय और अन्त:करणादि हों। जो स्वतंत्र न हो, तो उसको पाप-पुण्य कभी नहीं हो सकता। जो परमेश्वर कर्म कराता, तो कोई जीव पाप नहीं करता क्योंकि परमेश्वर पवित्र और धार्मिक होने से किसी जीव को पाप करने में प्रेरणा नहीं करता।
            दुष्ट लोग बुरे कर्म करके इनकी जिम्मेदारी परमेश्वर पर डालकर अपने को मुक्त समझते हैं परन्तु परमेश्वर जब उनका फल देता है तो यह कहते हैं कि हमें जो व्यक्तिगत व सामाजिक कष्ट मिलते हैं, वे ईश्वर दे रहा है। हमारा निवेदन यह है कि ईश्वर तानाशाह नहीं है। अपनी व्यवस्था व न्याय से फल देता है, अपनी इच्छा से नहीं। यदि ईश्वर जीवों को मनमाने ढंग से चला पाता तो इनमें कोई भी बुराई न मिलती परन्तु ऐसा वह जीवों के कर्म करने की स्वतंत्रता छीनकर ही कर सकता था। तानाशाह न होकर, न्यायकारी होने से वह जीवों की स्वाभाविक स्वतंत्रता में तनिक भी हस्तक्षेप नहीं करता, न कर सकता है। तात्पर्य यह है कि ईश्वर की व्यवस्था को न समझकर तथा स्वयं का सुधार न करके जीव ईश्वर को ही दोषी व उत्तरदायी मानता है। कुछ लोग इसी कारण नास्तिक बन जाते हैं। इसमें दोष नास्तिकों का नहीं है, ईश्वर के स्वभाव, ईश्वर के कर्मों व उसकी व्यवस्था को सही व पूर्ण न समझने-समझाने वाले कथित विद्वानों का है।

                                                                                            परोपकारी पत्रिका (मई प्रथम २०११)