विषय : महर्षि दयानन्द
शीर्षक : महर्षि दयानन्द का राष्ट्रवाद
लेखक : डॉ. उमाशंकर नगायच

               भारतीय पुनर्जागरण काल के समाज सुधारकों एवं महापुरुषों में महर्षि दयानन्द का अप्रतिम स्थान है। महर्षि दयानन्द वर्तमान युग में भारत के लिये स्वराज्य, स्वसंस्कृति, स्वदेशी एवं स्वभाषा के प्रथम स्वप्नदृष्टा थे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम तथा स्वराज्य के अभियान में वे दादाभाई नौरोजी, लोकमान्य तिलक, विवेकानन्द, मदनमोहन मालवीय तथा महात्मा गांधी आदि नेताओं के अग्रणी समाज सुधारक एवं जननेता थे। महर्षि दयानन्द 'स्वराज्यÓ के सर्वप्रथम उद्घोषक एवं संदेश वाहक थे। अत: स्वदेशी, स्वराज्य, स्वसंस्कृति एवं स्वराष्ट्रगौरव सम्बन्धी उनके अग्रगामी चिन्तन एवं भारतीय स्वतंत्रता संग्राम तथा स्वराज्य के अभियान में उनके योगदान को ध्यान में रखते हुए उन्हें राष्ट्रपितामह कहा जा सकता है। महर्षि दयानन्द के राष्ट्रवादी विचारों के सम्बन्ध में डॉ. सत्यदेव विद्यालंकार लिखते हैं ''ऋषि दयानन्द इस देश के निवासियों में इसी राष्ट्रीय भावना को और इसी राष्ट्रवाद को जगाना चाहते थे। अपने आराध्य देव ईश्वर की राजा, महाराजा और महाराजाधिराज तथा सम्राट् आदि नामों से आराधना करने की सुन्दर एवं उत्कृष्ट परम्परा के सूत्रपात करने से भी उनकी राष्ट्रीय भावना का प्रत्यक्ष परिचय मिलता है।"
               अंग्रेजों की दासता में जकड़े हुए देश में राष्ट्रीय स्वाभिमान तथा स्वराज्य की भावना से युक्त राष्ट्रवादी विचारों की शुरूआत करने तथा अपने कृत्यों एवं उपदेशों से निरन्तर राष्ट्रवाद को पोषित करने वाले महर्षि दयानन्द को ही आधुनिक युग में भारतीय राष्ट्रवाद का जनक कहना उपयुक्त होगा। स्वामी दयानन्द के राष्ट्रवादी चिन्तन के सम्बन्ध में पाश्चात्य विद्वान् मैक्समूलर ने कहा है ''दयानन्द की धार्मिक शिक्षाओं में भी सशक्त राष्ट्रीय अनुभूति है।" इस विषय में डॉ. लाल साहब सिंह लिखते हैं ''स्वामी दयानन्द के राष्ट्रवाद विषयक सुदृढ़, गम्भीर एवं विशुद्ध वैदिक विचारों के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। दयानन्द स्वधर्म, स्वसंस्कृति, स्वदेश, स्वराज्य एवं स्वभाषा के उपासक थे। उन्होंने भारत के गौरवशाली अतीत के पुनराख्यान द्वारा भारतीयों के लुप्तप्राय आत्मविश्वास, आत्मावलम्बन, आत्मगौरव, आत्मनिर्भरता एवं अस्मिता को उद्बुद्ध कर वेदों द्वारा स्वतंत्रता, समानता, भ्रातृत्व एवं न्याय का संदेश दिया है। दयानन्द समग्र रूप में भारतीय राष्ट्रवाद के जनक हैं।"
महर्षि दयानन्द के राष्ट्रवाद के प्रमुख सोपान हैं- स्वदेश, स्वराज्य, स्वभाषा एवं स्वधर्म।
               स्वामी दयानन्द के हृदय में स्वदेश अर्थात् अपनी मातृभूमि आर्यावर्त देश का सर्वोपरि सम्मान था। सत्यार्थ प्रकाश ग्यारहवें समुल्लास में उन्होंने अपने देश प्रेम को प्रकट करते हुए लिखा है कि ''यह आर्यावर्त देश ऐसा है, जिसके सदृश भूगोल में दूसरा देश नहीं है। इसीलिए इस भूमि का नाम सुवर्णभूमि है, क्योंकि यही सुवर्णादि रत्नों को उत्पन्न करती है।..... जितने भूगोल में देश हैं, वे सब इसी देश की प्रशंसा करते और आशा रखते हैं कि पारसमणि पत्थर सुना जाता है, वह बात तो झूठी है, परन्तु आर्यावर्त देश ही सच्चा पारसमणि है कि जिसको लोहे रूप दरिद्र विदेशी छूते के साथ ही सुवर्ण अर्थात् धनाढ्य हो जाते हैं।" महर्षि ने स्वदेश भक्ति न होने के कारण ब्राह्मसमाजियों एवं प्रार्थनासमाजियों को धिक्कारा है। प्रार्थनासमाजियों और ब्राह्मसमाजियों की इस विषय में तीखी आलोचना करते हुए वे अत्यंत वेदना और व्यथा के साथ लिखते हैं कि ''इन लोगों में स्वदेश-भक्ति बहुत न्यून है।.... भला जब आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुए हैं और इसी देश का अन्न-जल खाया-पिया, अब भी खाते-पीते हैं, अपने माता-पिता व पितामहादि के मार्ग को छोड़ दूसरे विदेशी मतों पर अधिक झुक जाना..... एतद्देशस्थ संस्कृत-विद्या से रहित अपने को विद्वान् प्रकाशित करना, इंग्लिश भाषा पढ़ के पण्डिताभिमानी होकर झटिति एक मत चलाने में प्रवृत्त होना, मनुष्यों का स्थिर और बुद्धिकारक काम क्यों कर हो सकता है?" स्वदेश, स्वभाषा, स्वधर्म और अपने पूर्वजों के प्रति प्रेम, गौरव एवं स्वाभिमान का भाव महर्षि के विचारों में पदे-पदे छलक रहा है।
               महर्षि दयानन्द के स्वदेशी सम्बन्धी विचारों को स्वतंत्रता संग्राम के स्वदेशी आन्दोलन का आधार सूत्र बताते हुए भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा ''स्वामी दयानन्द ने अपनी आश्चर्यजनक भविष्यदर्शी दृष्टि द्वारा हस्तनिर्मित वस्त्रों एवं अन्य स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग का जो विचार प्रस्तुत किया, उसे ही पचास वर्ष के पश्चात् महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता संग्राम का एक मुख्य मुद्दा बनाया।"
'स्वराज्य' के विषय में महर्षि दयानन्द के विचार अत्यन्त क्रांतिकारी थे। उन्होंने ही 'आर्यावर्त आर्यों के लिये है' का उद्घोष किया जो कालान्तर में 'भारत भारतीयों के लिये है' के रूप में स्वतंत्रता संग्राम का ध्येयसूत्र बना। महर्षि ने अपने ग्रंथों एवं प्रवचनों में 'स्वराज्य' के सम्बन्ध में अत्यन्त स्पष्ट विचार व्यक्त किये हैं। सत्यार्थप्रकाश अष्टम समुल्लास में लिखे गये ये शब्द भारत की स्वाधीनता के इतिहास में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं यथा ''अब अभाग्योदय से और आर्यों के आलस्य, प्रमाद, परस्पर के विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी, किन्तु आर्यावर्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतंत्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ है सो भी विदेशियों से पादाक्रान्त हो रहा है। कुछ थोड़े राजा स्वतंत्र हैं। दुर्दिन जब आता है, तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दु:ख भोगना पड़ता है। कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मतमतान्तर के आग्रह-रहित, अपने और पराये का पक्षपातशून्य, प्रजा पर पिता-माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परन्तु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक्-पृथक् शिक्षा, अलग-अलग व्यवहार का विरोध छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। इसलिए जो कुछ वेदादि शास्त्रों में व्यवस्था के  इतिहास लिखे हैं, उसी को मान्य करना भद्रपुरुषों का काम है।" इस प्रकार दयानन्द के समूचे राजनीति दर्शन का आदर्श 'स्वराज्य' है तथा राज्य, सभा, अमात्य आदि राज्य के सभी अंग उसके साधन हैं।
               महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रंथ 'आर्याभिविनय' में ईश्वर से प्रार्थना करते हुए अपने देश की स्वतंत्रता और स्वराज्य की मांग की है। उन्होंने कहा ''अन्य देशीय राजा हमारे देश में कभी न हों तथा हम लोग पराधीन कभी न हों।" तथा.... ''हे कृपासिन्धो भगवान्! हम पर सहाय करो, जिससे सुनीतियुक्त होके हमारा स्वराज्य अत्यन्त बढ़े।" इन प्रार्थनाओं में महर्षि का स्वदेश प्रेम तथा स्वराज्य के लिये उनकी उत्कट अभिलाषा स्पष्ट दिखायी देती है। महर्षि दयानन्द ने अपने राष्ट्रवादी विचारों के तारतम्य में स्वराज्य से बहुत आगे बढ़कर आर्यों के सर्वतंत्र स्वतंत्र चक्रवर्ती साम्राज्य की स्थापना का भी विचार प्रस्तुत किया है।
               महर्षि ने आर्य भाषा (हिन्दी भाषा) को देश की राष्ट्रभाषा बनाने के लिये भी बहुत प्रयत्न किये। उन्होंने अपने अधिकांश ग्रंथ हिन्दी भाषा में लिखे और देशभर में अपने उपदेश, प्रवचन हिन्दी भाषा में ही दिये। स्वधर्म के रूप में महर्षि दयानन्द ने विशुद्ध वैदिक धर्म की अवधारणा को पुनरुज्जीवित कर समाज में धर्म के नाम पर प्रचलित पाखण्डों का खण्डन किया और सच्चे धर्म का स्वरूप सभी के सामने उपस्थित किया।
               स्वामी दयानन्द के राष्ट्रवादी विचारों की व्याख्या करते हुए डॉ. लालसाहब सिंह लिखते हैं ''स्वामी दयानन्द के राष्ट्रवाद के विविध आयामों-स्वदेशी, स्वभाषा (हिन्दी), स्वधर्म (वेदवाद), स्वराज्य तथा चक्रवर्ती आर्य राज्य के विस्तृत विवेचन के पश्चात् यह स्पष्ट होता है कि उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय पुनर्जागरण काल के समाजसेवी तथा धर्माचार्य जहाँ लोकैषणा और आत्मचिन्तन तक ही सीमित थे, वहीं दयानन्द ने मातृभूमि की दुर्दशा से द्रवित होकर उसके कल्याण और मुक्ति हेतु सार्थक चिन्तन प्रस्तुत किया है। उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद को जागरित करने के लिए अपने ब्रह्मसुख का परित्याग कर दिया। उनके लिए राष्ट्रमुक्ति ही परम धर्म था। एक संन्यासी द्वारा इस प्रकार का चिन्तन अभूतपूर्व था। उनके राष्ट्रवादी चिन्तन की सर्वप्रमुख विशेषता भारतीयता थी। इसी से प्रभावित होकर मुंशी प्रेमचन्द्र ने कहा था कि 'दयानन्द भारतीयता का अवमूल्यन नहीं करना चाहते थे। भारत के शव पर प्रगतिवाद एवं पश्चिम के डिजाइन का भवन वे सहन नहीं कर सकते थे।' दयानन्द के लिये आर्य जाति चुनी हुई जाति, भारत चुना हुआ देश और वेद चुनी हुई धार्मिक पुस्तक थी। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि दयानन्द विशुद्ध भारतीय राष्ट्रवाद के जनक थे।"
               इस प्रकार महर्षि दयानन्द ने स्वदेश, स्वधर्म, स्वभाषा और स्वराज्य की अवधारणाएं  प्रस्तुत कर भारतीयों में स्वाभिमान की भावना का प्रबलता से संचार किया। उन्होंने भारत के गौरवशाली अतीत की अत्यन्त सबल और प्रेरणास्पद व्याख्या प्रस्तुत कर भारतीयों में अभूर्तपूर्व आत्मसम्मान एवं राष्ट्रगौरव की भावना उत्पन्न कर दी।
संदर्भ
१. राष्ट्रवादी दयानन्द पृ. ११
२. स्वामी दयानन्द का राजनीतिक दर्शन पृ. २८६
३. सत्यार्थप्रकाश, पृ. १८७
४. सत्यार्थप्रकाश, पृ. २५९.२६०
५. डी. बाब्ले, दि आर्यसमाज पृ. १३७
६. सत्यार्थप्रकाश, पृ. १५३
७. स्वामी दयानन्द का राजनीतिक दर्शन पृ. ३३८.३३९
- ई-११७/६ शिवाजी नगर, भोपाल, म.प्र.                         (परोपकारी - फरवरी प्रथम, २०११)