[लेखक परिचय:- मराठी बाल साहित्य के जनक श्री विनायक कोंडदेव ओक (१८४०-१९१४) चरित्रकार और कवि के रूप में सुप्रसिद्ध थे। महाराष्ट्र के 'कोंकण' विभागीय 'रत्नागिरि' जनपद के 'गुहागर' के सन्निकट स्थित 'हेदवी' गांव में २५ फरवरी १८४० को उनका जन्म हुआ। बचपन में ही माता-पिता जी के देहान्त हो जाने के कारण उनकी शिक्षा सुचारु रूप से नहीं हो पायी। तीसरी कक्षा तक की पढ़ाई होने के उपरान्त उन्होंने स्वाध्याय से अपने विद्याध्ययन को समृद्ध किया। शिक्षा विभाग में अध्यापक के रूप में सेवा प्रारम्भ की और एडीशनल डेप्यूटी एज्युकेशनल इंस्पैक्टर (अतिरिक्त विभागीय शिक्षाधिकारी) के रूप में सेवानिवृत्त हुए।
सन् १८६६ में 'लघु निबन्धमाला' नामक उनका पहिला पुस्तक प्रकाशित हुआ, जिसे पुरस्कृत भी किया गया। 'पीटर दी ग्रेट', 'अब्राहम लिंकन', 'ग्लैडस्टन' आदि पाश्चात्य महान् व्यक्तियों के आपने चरित्र लिखे। 'इतिहास तरंगिणी', 'हिन्दुस्तान का संक्षिप्त इतिहास', 'फ्रांस राज्य क्रांति का इतिहास' नामक आपके ऐतिह्य ग्रंथ भी प्रकाशित हुए। 'शिरस्तेदार' (न्यायालयीन अधिकारी) नामक सामाजिक उपन्यास व आंग्ल कथाओं पर आधारित 'आनन्दराव' नामक कथा संग्रह और 'पुष्प वाटिका' नामक दस विशिष्ट कविताओं का संग्रह भी आपका प्रकाशित हुआ है। कठिन शब्दों का प्रयोग करने की अपेक्षा सरल और लघु वाक्य लेखन शैली को उन्होंने विशेष रूप से अपनाया।
'बाल बोध' नामक मराठी मासिक प्रारम्भ कर उन्होंने मराठी बाल साहित्य का सूत्रपात किया। सन् १८८१ में 'बालबोध' का पहिला अंक प्रकाशित हुआ। जो बातें विद्यालयीन जीवन में मालूम नहीं होतीं, पर जिनकी उस जीवन में जानकारी होना जरूरी है, ऐसी अत्यावश्यक बातें उन्होंने उक्त मासिक में देने का निश्चय अपने प्रथमांक के संपादकीय में व्यक्त कर लगभग ३४ वर्ष तक उस मासिक का प्रकाशन किया। विशेष बात यह थी कि उस काल में बाल-किशोरों के साथ ज्येष्ठ नागरिक भी इस मासिक के पाठक बने। 'बालबोध' मासिक के माध्यम से ४०२ चरित्र, ४०२ कविता, ४०२ निबन्ध, ३७१ शास्त्रीय निबन्ध और अन्यान्य विषयों पर ८५० लेख स्वयं उन्होंने लिखे। उनका यह कार्य मराठी बाल साहित्य में अतिशय अनमोल योगदान देने वाला सिद्ध हुआ है।
९ अक्टूबर १९१४ को उनका देहावसान हुआ।
मराठी में लिखित श्री विनायक कोंडदेव ओक का यह लेख 'बालबोध' मराठी मासिक जुलाई १८९५-पृष्ठ ७३-७९ से अनूदित किया गया है।]
भगोने के ढ़क्कन को भांप के जोर से उठते-उड़ते हुए आज तक अनेक लोगों ने देखा, पर उससे वाष्प की शक्ति को मनुष्य मात्र की सुख-सुविधा और उपयोग में लाने की युक्ति अन्य किसी के अतिरिक्त केवल जेम्स वाट नामक एक व्यक्ति को ही सूझी। उसी प्रकार आकस्मिक मृत्यु को देखकर इस दुनिया की क्षणभंगुरता न जाने कितने लोगों के मन में आज तक आ चुकी होगी, पर उस क्षणभंगुरता की विशिष्ट छाप बुद्ध, लूथर जैसे महापुरुषों के अन्त:करण पर पड़ी और उन्होंने उससे परमार्थ साधन के विषय में एक तीव्र बेचैनी महसूस की। इन जैसे महापुरुष आज पर्यन्त बहुत ही कम हुए हैं, और ऐसे जो भी कोई महापुरुष हो गए हैं, वे सभी लोगों के लिए अभिनन्दन और अभिवंदन के पात्र रहे हैं। उन सबकी देवताओं के समान भक्ति की जा रही है। आधुनिक काल में ऐसे जो महापुरुष हुए हैं, उनमें स्वामी दयानन्द सरस्वती का (विशेष रूप से) समावेश है।
स्वामी जी की मूल पृष्ठभूमि में न जाते हुए हम उनके चरित्र की कुछ मुख्य-मुख्य घटनाएँ यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। हमारे हमेशा के चरित्र पाठ से यह पर्याय थोड़ा-सा भिन्न है। इसका कारण यह है कि इस सत्पुरुष का चरित्र हमें यथासमय मिला नहीं। सुना है इनका विस्तृत चरित्र पं. लेखराम जी हिन्दी भाषा में लिख रहे हैं। [पं. लेखराम जी द्वारा उर्दू में लिखित जीवन चरित्र, मास्टर आत्माराम अमृतसरी जी ने संपादित किया, जो इस लेख के दो साल बाद सन् १८९७ में आर्य प्रतिनिधि सभा-पंजाब ने प्रकाशित किया। इसका हिन्दी अनुवाद पं. रघुनन्दनसिंह निर्मल ने किया जो पहली बार आर्यसमाज नया बांस दिल्ली द्वारा सन् (२०२८ विक्रमी) में प्रकाशित हुआ।] स्वयं स्वामी जी ने अपना आत्मचरित्र लिखा है, उसके प्रारम्भ में ही वे कहते हैं कि- ''बिलकुल शुरुआत से ही मैंने अपने माता-पिता के नाम-गाँव आदि के सम्बन्ध में कुछ नहीं बतलाया, क्योंकि उन्हें गुप्त रहस्य के रूप में रखना ही मेरे संन्यस्त कर्त्तव्य-कर्म के लिए आवश्यक था।"
स्वामी जी का घराना औदीच्य ब्राह्मण कुलोत्पन्न और ऐश्वर्य संपन्न था। इनका जन्म सन् १८२४ में मोरवी रियासत के एक गांव में हुआ। इनके पिताजी बड़े कट्टर शैव भक्त थे और अपने इस बालक को भी कट्टर शैव भक्त ही बनाने की उनमें तीव्र अभिलाषा थी, परन्तु इस बालक की बुद्धि प्रारम्भ से ही अतिशय तीव्र थी। अत: उपनयन संस्कार के उपरान्त शिव-पूजादि के कर्मों को देखकर इनके मन में अनेक प्रकार के प्रश्न और संदेह उत्पन्न होने लगे। कैलाशपति-सब देवों के देव-महादेव का बैल की सवारी करना, डमरू बजाना और त्रिशूल आदि धारण करना कैसे संभव है? परमात्मा के सर्वशक्तिमान् आदि गुण इस मूर्ति में कहाँ हैं? ऐसे विचार जब उनके मन में घर किये बैठे थे, तभी उनकी एक बहिन किसी बीमारी के कारण पांच-छह घंटे में ही अकस्मात् चल बसी। यह सब देखकर उनका मन जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होने की दिशा में उन्मुख हो उठा। ऐसी स्थिति में ही उनके पिताजी ने अपने इकलौते पुत्र के विवाह करने की बात मन में ठान ली। परन्तु बालक की इच्छा विशेष ज्ञान प्राप्त करने की थी। अत: उन्होंने विवाह करने से इनकार कर दिया और अपने माता-पिता को बिना बतलाये ही अकस्मात्-चुपचाप घर से निकल गए। वे संगति-सत्संगति करते हुए उत्कृष्ट विद्वान् बने, जिससे उनके अन्त:करण पर उत्तम कोटि के विद्या के संस्कार अंकित होते चले गए। कालान्तर में वे ही बड़े ज्ञानी और महान् धर्मनिष्ठ हो, दयानन्द सरस्वती के नाम से लोक में पहचाने-जाने लगे।
स्वामी जी को अपने देश-धर्म के प्रति बड़ा स्वाभिमान था। वे आग्रहपूर्वक कहते थे कि- 'हिन्दू' इस शब्द के स्थान पर 'आर्य' इस शब्द का ही प्रयोग करना चाहिए।' तब से हम लोगों में आर्य शब्द लिखने की प्रवृत्ति बहुत बढ़ गई है। उनका यह मत था कि- 'वेद ईश्वर प्रणीत अपौरुषेय हैं और उसमें समस्त ज्ञान के बीज विद्यमान हैं। किसी भी प्रकार का एक भी दोष उसमें नहीं है, क्योंकि उसमें ईश्वर प्रदत्त ज्ञान और धर्म का ही वर्णन है।' अपनी इस धारण को वे उत्तम प्रकार से स्थापित और सिद्ध करते थे। इस बात के प्रतिपादन के लिए उहोंने 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका', 'ऋग्वेद-यजुर्वेद भाष्य', 'सत्यार्थप्रकाश' आदि ग्रंथ संस्कृत और हिन्दी भाषा में लिखकर प्रकाशित किये। जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वामीजी का ज्ञानाधिकार बहुत बड़ा और वाद-विवाद का सामथ्र्य भी विलक्षण था। उनमें अलौकिक समय-सूचकता थी। उनके सामने कोई वाद-विवाद या शास्त्रार्थ करने के लिये उपस्थित होता तो वे उसके सामने शास्त्र प्रमाणों और दृष्टांतों की झड़ी-सी लगा देते थे। वेदोक्त धर्म के विशुद्ध सिद्धान्तों का पुनरुज्जीवन करने की कामना और उसको यत्र-तत्र-सर्वत्र प्रसार करने की भावना लिए अनेक सद्धर्म सुधारक प्रिय सज्जनों के अतिशय आग्रह पर 'आर्यसमाज' नामक जो एक संस्था स्थापित हुई है उसकी स्थापना इन्हीं स्वामीजी ने की है। अब इसका अधिकाधिक प्रसार हो रहा है। उनका यह कहना था कि- 'हमें परस्पर 'नमस्कार' न कहकर 'नमस्ते' कहना चाहिए।' उनकी यह परिपाटी आज भी आर्यसमाजी लोगों में विशेष रूप से प्रचलित है।
स्वामी जी धर्मोपदेशक थे। धार्मिक क्षेत्र में वे अत्यधिक लोकप्रिय और यशस्वी भी हुए। उसी समय के एक और धर्मोपदेशक बाबू केशवचन्द्र सेन जी भी थे। इन दोनों को भी ईस्वी सन् १८७७ में विशाल दिल्ली-दरबार में वायसराय लार्ड लिटन ने बुलाया था। वहाँ इन्होंने एक दूसरे का अंत:करण पूर्वक शानदार स्वागत-सम्मान किया।
स्वामी जी ने अत्यधिक प्रवास किया था। बहुत सारे व्याख्यान दिये और बहुत से शास्त्रार्थ भी किये थे। डॉ. रामकृष्ण गोपाल भांडारकर स्व. पं. विष्णु परशुराम शास्त्री आदि विद्वज्जनों का और उनका घनिष्ठ परिचय था और विविध विषयों में मतभेद होने के कारण उनमें वाक्युद्ध भी हुए। उनका यह सुदृढ़ मत था कि- 'मूर्ति पूजा वेद प्रतिपादित नहीं है' तथा पौराणिक काल से यह जो धारण प्रचलित थी कि- 'वेदाध्ययन केवल ब्राह्मणों द्वारा ही किया जाना चाहिए, अन्यों द्वारा नहीं' इससे भी स्वामी जी पूर्णतया असहमत थे। उनका यह कहना था कि- जिस किसी को भी ज्ञान प्राप्ति की जिज्ञासा हो, उस हर जिज्ञासु को वेदाध्ययन करना चाहिए। फिर चाहे वह किसी भी जाति का क्यों न हो। इस विषय में मुंबई में बड़ी-बड़ी सभाओं का आयोजन हुआ, परन्तु प्रत्यक्ष वाद-विवाद या शास्त्रार्थ होने के उपरान्त भी कोई निश्चित निर्णय नहीं हो पाया। रामानुज मत के कमलनयन आचार्य व पं. रामलाल जी से 'मूर्तिपूजा' पर वाद-विवाद के एक-दो प्रत्यक्ष प्रसंग आये थे, पर उनमें भी यह सिद्ध न हो सका कि- 'मूर्ति पूजा वेद प्रतिपादित है।'
स्वामी जी ईस्वी सन् १८७५ में पुणे गये थे तब उनका और प्रतिपक्षियों का जो झगड़ा हुआ, वह बहुचर्चित और सर्वत्र प्रसिद्ध है, अत: उस विषय में यहाँ कुछ लिखने की आवश्यकता हमें महसूस नहीं होती।
सद्धर्म की स्थापना के लिए चांदपुर में १६ मार्च १८७७ को विभिन्न धर्म प्रसारकों की एक बृहत् सभा आयोजित की गई थी, उसमें स्वामीजी विराजमान थे। उस समय निम्नलिखित मुख्य पांच विषयों पर चर्चा हुई-
१. यह दुनिया परमेश्वर ने किससे, कब और किस कारण से उत्पन्न की? २. क्या परमेश्वर सर्वशक्तिमान् है? ३. परमेश्वरीय न्याय व्यवस्था और दया का स्वरूप क्या है? ४. वेद, बाइबिल और कुर्आन के ईश्वर प्रणीत धर्मशास्त्र होने के ठोस प्रमाण क्या हैं? ५. मोक्ष प्राप्ति से क्या तात्पर्य है और उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है?
ये सभी विषय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इन सभी पर स्वामीजी के भाषण हुए। मुस्लिम धर्म और ईसाई धर्म के जानकार मौलवियों और पादरियों के भी भाषण हुए। पर इन सबमें आपसी सहमति नहीं हो पायी। इनमें स्वामीजी के भाषण चिंतनीय और विचारणीय हैं।
मोक्ष प्राप्ति के विषय में स्वामी जी ने कहा है- 'सब दु:खों से विमुक्त रहने का नाम ही केवल मोक्ष नहीं है, अपितु अनासक्त-विमुक्त रहकर परमेश्वर के वैभव, परमेश्वर विषय ज्ञान और चिरकाल तक अखंड आनन्द का उपभोग प्राप्त करना ही मोक्ष प्राप्ति है। इसके अतिरिक्त उन्होंने मोक्ष प्राप्ति के निम्नांकित मुख्य छह साधन बतलाए हैं-
१. सत्य ज्ञान और सत्याचरण। २. सत्य ज्ञान की प्राप्ति-जो केवल वेद से ही प्राप्त की जा सकती है। ३. साधुओं और दार्शनिकों का सत्संग। ४. इन्द्रिय दमन अर्थात् असत् कार्य पराङ्मुखता और सत्कार्य दक्षता। ५. परमेश्वर के सामथ्र्य का विचार-मनन और चिन्तन। ६. प्रार्थना-जो इस प्रकार की हो कि- हे देव दयानिधि हमें जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त करो, और अपनी कृपा की निरंतर हम पर अमृत वर्षा करो।
स्वामी जी ने 'छपरा', 'लखनऊ', 'इलाहाबाद', 'काशी', 'चांदपुर', 'पुणे', 'मुंबई' आदि स्थानों पर अपना डेरा डालकर और प्राय: सारे हिन्दुस्तान का पर्यटन कर आर्य मत का प्रसार किया और विभिन्न स्थानों पर आर्यसमाजों की स्थापना की। संप्रति समस्त भारतवर्ष में इन आर्यसमाजों की संख्या ९०० के लगभग हो गई है। अधिकांश लोगों को यह आशा है कि इस धार्मिक उदारता के युग में उनके विचारों का अधिकाधिक प्रसार होता चला जायेगा।
'गो-रक्षा यह धर्मशास्त्र की दृष्टि से जितनी अत्यावश्यक एवं मान्य है, उससे भी अधिक अर्थशास्त्र और आरोग्य की दृष्टि से भी अत्यन्त हितकारी है, अत: गो आदि प्राणियों की रक्षा अवश्य होनी चाहिए।' यह गोरक्षा का अभियान भी सर्वप्रथम स्वामीजी ने ही प्रारम्भ किया था। जिससे प्रेरणा पाकर ही स्थान-स्थान पर गोरक्षा के केन्द्र खुले हुए हैं। [पं. गट्टूलाल शास्त्री ने स्वामी दयानन्द जी के देहावसान पर शोक-संवेदना व्यक्त करते हुए कहा था- 'दयानन्द से हमारा अनेक विषयों पर मतभेद होते हुए भी हम यह बात मुक्तकण्ठ से स्वीकार करेंगे कि-दयानन्द ने इस देश में वेद सम्बन्धी चर्चा और जिज्ञासा का उदय किया है और गोरक्षा के आन्दोलन का सूत्रपात करके सारे भारत को एकता के सूत्र में बांधने का उद्योग किया है। बाबू श्री देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय-महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन-चरित्र, प्रकाशक- गोविन्दराम हासानन्द, नई सड़क, दिल्ली-६, संस्करण २०५० विक्रमी, पृष्ठ-६२२] अस्तु- इनके अवतार कार्य का एक शक और युग ही मानो इस देश में स्थापित हो गया है। ऐसे श्रेष्ठ महापुरुष ने ईस्वी सन् १८८३ के अक्टूबर महीने की ३० तारीख को अजमेर में जयपुर महाराज की (भिनाय) कोठी में अपना नश्वर देह त्याग दिया। उससे आठ-दस दिन पहले उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ चुका था।
स्वामीजी के स्मारक के रूप में आर्यसमाजों ने लाहौर में 'दयानन्द एँग्लो वैदिक कॉलेज' नामक एक शिक्षा संस्था स्थापित की है। इस समय उसमें हजारों छात्र विद्याध्ययन कर रहे हैं और वहां की प्रबन्ध-व्यवस्था भी अत्युत्तम है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती का यह अल्प एवं लघु चरित्र है। अत: मतभेदों के क्षेत्र में यहाँ प्रवेश करने की कोई आवश्यकता नहीं है, परन्तु सारांश रूप में देखा जाय तो ये महापुरुष बहुत ही बुद्धिमान्, महान् विद्वान्, विरक्त, आचरण की दृष्टि से अत्यन्त निर्मल और धार्मिक दृष्टि से जन-गण-मन के अन्त:करण में वेद-विद्या का प्रकाश आलोकित करने में अनवरत तत्पर और निरन्तर सन्नद्ध रहते थे। इस तथ्य को उनके प्रतिपक्षी भी नि:संकोच रूप से स्वीकार करते हैं। इस कारण उनका वन्दन-अभिनन्दन, गुणानुवाद और स्तुति पाठ करना मानो हमारे पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों का ही सुफल है यह भाग्य यत्किञ्चित् रूप में ही क्यों न हो, अब हमें प्राप्त हुआ है, अत: परमपिता परमेश्वर का हार्दिक आभार मानकर इस लघु चरित्रात्मक लेख पर हम पूर्ण विराम लगाते हैं। (परोपकारी - फरवरी द्वितीय, २०११)