जब कोई आन्दोलन सफल हो जाता है तो उसे क्रान्ति कहा जाता है और जब कोई संघर्ष असफल होता है तो शासन उसे विद्रोह कहता है। यही स्थिति बाबा रामदेव के आन्दोलन की है। अनशन के समय तक आन्दोलन को आशा और उत्साह से देखा जा रहा था, वही आन्दोलन चार और पाँच जून की रात्रि में कुचल दिया गया। आज उसकी समीक्षा हो रही है। बड़े-बड़े विचारक, लेखक, पत्रकार, नेता उस आन्दोलन का विश्लेषण कर रहे हैं। उस पर टिप्पणी कर रहे हैं। ध्यान देने की बात है कि इस आन्दोलन को लेकर जो टिप्पणियाँ आ रही हैं उनमें अधिकांश व्यक्तिगत आक्षेप के रूप में हैं। दिग्विजयसिंह जैसे लोग गालियों से ही आक्रमण कर सकते हैं। इन गालियों का कोई अर्थ नहीं, दुनियां में किसी से भी कोई दु:खी नाराज होता है तो गालियां देता है, इनसे किसी का अच्छा-बुरा नहीं होता।
दूसरे लोग वे हैं जो बाबा रामदेव के आन्दोलन को सही नहीं मानते और इसे प्रजातन्त्र का निन्दनीय रूप मानते हैं, इनमें न्यायाधीश अय्यर जैसे लोग हैं जिन्होंने आन्दोलन के प्रकार को उचित नहीं माना है। ये लोग इसे प्रजातन्त्रात्मक नहीं मानते, ऐसे लोगों का विचार है कि जनता ने अपने द्वारा निर्वाचित लोगों को सत्ता सौंपी है, उन्हीं के द्वारा निर्णय किया जाना उचित है। यह बात सुनने में तो ठीक लगती है परन्तु इससे आन्दोलन का औचित्य समाप्त नहीं हो जाता। जनता ने निर्वाचित लोगों को सत्ता सौंपी है पर इस देश का कल्याण करने के लिए, जनता की भलाई करने के लिए। यदि ये लोग अपने कत्र्तव्य के पालन करने में असफल सिद्ध होते हैं तो जनता को क्या करना चाहिए? निर्वाचन तो समय पर ही होंगे तब तक जनता की पीड़ा का क्या होगा? फिर जिन निर्वाचित लोगों से इस देश की जनता साठ वर्ष से अपने दु:खों को दूर करने की आशा लगाये बैठी है, उसके धैर्य का बांध कब तक नहीं टूटेगा?
आन्दोलन क्या बिना जनता के होता है? जिस जनता ने निर्वाचन के माध्यम से सत्ता सौंपी है वह जनता उन्हीं लोगों को आन्दोलन के माध्यम से अपनी पीड़ा बता रही है। इसमें अनुचित क्या है? बाबा रामदेव का आन्दोलन हिंसक तो नहीं था, अवैधानिक भी नहीं था। सत्ता की इच्छा के विरुद्ध अवश्य था और सत्ता ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके उसे सफल नहीं होने दिया। किसी भी आन्दोलन को जन समर्थन तब तक नहीं मिलता जब तक उसमें जनता की पीड़ा दूर करने की बात नहीं हो। बाबा के आन्दोलन में सभी मुद्दे राष्ट्रीय हित और जनकल्याण के थे। मुख्य बिन्दु भ्रष्टाचार था और आज भी वह मुद्दा उसी प्रकार बना हुआ है।
बाबा के आन्दोलन को आज असफल कहने वाले कह लें, परन्तु बाबा ने अपने जन-जागरण के अभियान से जनता को उसके पीड़ा के कारणों को समझने में सफलता दिलाई है। आज सरकार जितने भी तर्क दे रही है वह उसके भयभीत होने को ही पुष्ट करते हैं। सरकार के लोगों का तर्क है आण्णा हजारे और बाबा रामदेव जैसे लोग निर्वाचित सरकार के विरुद्ध काम करके संविधान के विपरीत देश को चला रहे हैं। यह बात आतंकवादियों की शर्तों पर झुकते समय सरकार को कहनी चाहिए। आज तक कोई व्यक्ति गलत उद्देश्य को लेकर सत्याग्रह करने वाला नहीं बना। सत्याग्रह सत्य के प्रति ध्यान आकर्षित करने का उपाय है। बाबा रामदेव का विरोध करने वालों में अधिकांश वे लोग हैं जो भ्रष्टाचार को चर्चा के केन्द्र से हटाकर बाबा को चर्चा का केन्द्र बनाना चाहते हैं।
सरकार ने जब अनुभव किया कि बाबा अपनी सीमा से बढक़र उनकी सीमा में घुस रहे हैं और इससे सत्ता पर आंच आ सकती है तभी से सरकार ने आन्दोलन को समाप्त करने के उपाय प्रारम्भ कर दिये थे। सरकार ने अपनी पहली नाराजगी तब दिखा दी जब रामलीला मैदान में सब समाज सेवकों के साथ मिलकर स्वामी रामदेव ने बड़ी रैली की, परन्तु सरकार ने उसे संचार साधनों और समाचार पत्रों से दूर रखा। दूसरे कदम में इस आन्दोलन की जनता से बनी ताकत को सरकार ने सफलतापूर्वक विभाजित कर दिया जिस दिन सरकार ने एन.जी.ओ. के माध्यम से अण्णा हजारे को जन्तर मन्तर पर लोकपाल बिल के लिए अनशन पर बिठा दिया। इस प्रकार भ्रष्टाचार विरोधी-आन्दोलन अण्णा हजारे और बाबा रामदेव के दो खेमों में बंट गया।
इस आन्दोलन का तीसरा चरण था बाबा रामदेव का रामलीला मैदान का अनशन। इस चरण को समाप्त करने के लिए सरकार ने कई मूर्खता से भरे कदम उठाये, परन्तु इनमें बाबा को मूर्ख बनाने के लिए जो कदम उठाये गये उन्हें बाबा भी नहीं भांप सके। बाबा ने सरकार वाली सभी बातों को उसके उसी रूप में स्वीकार किया जैसी वे बोली जा रही थीं, और उन बातों को सच मानकर अपनी ओर से पत्र लिख दिया कि हम दो दिन बाद अपना कार्यक्रम समाप्त कर देंगे। यहां निश्चित रूप से बाबा के पास ऐसा सूचना तन्त्र नहीं था जो सरकार के अन्दर के इरादों की जानकारी बाबा को देता और वे उनसे सावधान हो पाते।
बाबा के आन्दोलन को देखकर विश्लेषकों ने दूसरी जो बात अनुभव की जिसे अण्णा हजारे ने अपने शब्दों में इस प्रकार कहा है बाबा रामदेव ने लोगों को योग सिखाया है वे योग सिखाना जानते हैं, सरकार और सत्ता से कैसे लड़ा जाता है, इसकी बाबा रामदेव को जानकारी नहीं है। इस बात की पुष्टि इस बात से होती है कि जैसे बाबा योग सिखाने, दवा बनाने के सारे काम अकेले ही कर लेते हैं वैसे ही इस आन्दोलन को उन्होंने अकेले ही चलाने की कोशिश की। वार्ताकार भी वे ही थे, नीतिकार भी वे ही थे, आन्दोलनकत्र्ता भी वे ही थे। परन्तु सरकार में ये सब अलग-अलग थे।
आज लगता है जब सरकार इस आन्दोलन को संविधान विरोधी कहकर गलत साबित करने की चेष्टा करती है तो आन्दोलन करने वालों की स्थिति घटना के बाद केस दर्ज कराने की और वकील खोजने की होती है। सरकार के इरादों का पता न होने से रामलीला मैदान में आन्दोलन करने वालों को चोटें सहनी पड़ीं, पण्डाल में हजारों व्यक्ति निश्चित होकर सो रहे थे जो देश के कोने-कोने से आये थे, उनके पास थोड़े-थोड़े पैसे भी हों तो एक-एक के पास हजारों रुपये होंगे, मोबाईल होंगे। वे रुपये और मोबाईल कहां गये? महिलाओं के पास आभूषण भी होंगे। व्यवस्था करने वाले जो १८ करोड़ रुपये टेण्ट तम्बू लगाने में व्यय कर रहे हैं उसके चलाने के लिए उनके पास पर्याप्त राशि नहीं होगी यह कल्पना भी नहीं की जा सकती।
जब किसी को अपने कपड़े पहनने तक का अवसर पुलिस ने नहीं दिया, महिलाओं के कान-गले के आभूषण छीन लिए गये तो करोड़ों रुपये जनता के कहां गये? पुलिस का आसान-सा उत्तर होगा इन्हीं लोगों ने ऐसा किया है। क्योंकि पुलिस, सरकार व न्यायालय तीनों यहां कानून से चलते हैं। पुलिस के पास बयान और गवाह होते हैं। जो वो चाहती है, उसके पास उसे सिद्ध करने का अवसर है। अनशनकारियों को चोट लगी तो गिरने से लगी या आपस में लडऩे से लगी, रात के अन्धेरे में पुलिस बेचारी क्या कर सकती थी। आप को कानून के हिसाब से उत्तर जुटाने होंगे। ऐसा नहीं कि आप के पास कानून के जानकार अर्थशास्त्री नीतिकार होते तो ऐसी घटना नहीं घटती, परन्तु इस घटना के प्रतिकार के आवश्यक उपाय हैं।
बाबा रामदेव जैसे रात के घटनाक्रम में फंसे वह कल्पना में न हो यह स्वाभाविक था। इस घटना ने बाबा के प्रति लोगों में सहानुभूति ही उत्पन्न की, सभी लोगों ने ऊंचे स्वर में इस कृत्य की भत्र्सना की। इस बीच बाबा के वक्तव्य बदले की भावना व कड़े शब्द वाले होने से स्वयं सेवकों की ग्यारह हजार लोगों की टोली बनाकर संघर्ष करने की घोषणा को समाचार-पत्र, सरकार और दूरसंचार साधनों ने जिस प्रकार तोड़-मरोडक़र पेश किया उससे बाबा को और उनके समर्थकों को अपने बचाव में दिनभर वक्तव्य देने पड़े, परन्तु वे सारे स्पष्टीकरण सरकार और संचार साधनों के प्रभाव को समाप्त करने में पर्याप्त सिद्ध नहीं हुए।
बाबा ने बड़ी स्वाभाविक बात कही थी कि हम युवकों को शस्त्र-शास्त्र की शिक्षा देंगे। यह किसी भी शिविर में बच्चों को दी जाती है, वे चाहे लडक़े हों या लड़कियाँ। बच्चों को लाठी, भाला, तलवार, जुडो-कराटे सब कुछ सिखाया जाता है। बहुत शिविरों में निशानेबाजी भी सिखाई जाती है। क्या यह आतंकवादी प्रशिक्षण है? शस्त्र-शास्त्र का मतलब बन्दूक तोप, बम बनाना तो नहीं समझा जा सकता? जो व्यक्ति कानून की बात करता हो, आप उससे आतंकवाद की बात कहने वाला बताते हैं तो निश्चय यह आपके इरादों की बेईमानी साबित करता है। परन्तु बाबा के शस्त्र शब्द को दूरदर्शन और समाचार पत्रों ने ऐसे दर्शाया जैसे सरकार के विरोध में दूसरा माओ संघर्ष प्रारम्भ होने जा रहो हो। बाबा समर्थकों को सारी शक्ति इसके स्पष्टीकरण देने में लगानी पड़ी और रामलीला मैदान से जो सहानुभूति आन्दोलन के साथ उपजी थी वह धीमी पड़ गई। इस प्रकार आन्दोलन में नीति निर्धारण को लेकर तथा राजनीतिक सजगता को लेकर जो कमियाँ उजागर हुई हैं उससे तो भविष्य के लिए पाठ सीखा जा सकता है।
पुलिस ने सर्वोच्च न्यायालय में अपनी सफाई में जो कहा है या तो वह सर्वथा झूठ है या तकनीकी सच है, व्यावहारिक सच नहीं है। जैसे यह कहना कि बाबा ने पाँच हजार लोगों के लिए अनुमति ली थी, अधिक लोग क्यों आये? जबकि जब भी रामलीला मैदान में कार्यक्रम की अनुमति ली जाती है उसकी प्रार्थना-पत्र की औपचारिक भाषा इसी प्रकार की होती है। गत लगभग दो मास पूर्व मुसलिम सम्मेलन में इसी मैदान में दो लाख से अधिक लोग आये थे। क्या तब पुलिस ने कार्यवाही की? इस प्रकार के सम्मेलन, इस मैदान में होते ही रहते हैं। काननू की दृष्टि से बाबा रामदेव से अधिक पुलिस और सरकार दोषी है। सरकार ने बाबा रामदेव को गिरफ्तार करने के लिए गिरफ्तारी वारंट मांगने पर भी नहीं दिखाया या नहीं दिया। न ही दूर ले जाने का वारण्ट ही बताया गया।
किसी भी स्थान को पुलिस मध्य रात्रि में खाली नहीं करा सकती, प्रथम उसे लोगों को सूचना देनी होती है, समय की अवधि बतानी पड़ती है, न मानने पर चेतावनी देनी होती है, उसके बाद हलके बल प्रयोग का क्रम आता है, परन्तु पुलिस ने बिना किसी पूर्व सूचना या चेतावनी के पण्डाल के बिजली-पानी के कनेक्शन काट दिये, कटे नंगे तारों पर किसी के हाथ-पैर पड़ते तो मृत्यु संभव थी। बन्द स्थान में रात में अश्रुगैस के गोले मंच पर छोड़े गये, जबकि बन्द स्थानों में अश्रुगैस के गोले छोडऩा गैरकानूनी है। पुलिस ने सोते हुए लोगों पर लात-घूंसे-लाठियां बरसाई, बिना समझे कि वह बच्चा है, बूढ़ा है या स्त्री है। पुलिस ने पण्डाल में आग लगाई, स्वयं सेवकों ने बताया आग बुझाने का प्रयास करने वालों पर डण्डे बरसाये।
जब सारा कार्यक्रम प्रारम्भ से ही पुलिस की निगरानी में हो रहा था। पण्डाल के अन्दर जाने का एक ही दरवाजा था, उस पर मेटल-डटेक्टर लगा, प्रत्येक व्यक्ति की तलाशी हो रही थी। फिर पुलिस का दावा करना कि पुलिस पर आक्रमण किया गया या करने की योजना थी, सिवाय झूठ बोलने के और कुछ नहीं है। इसके विपरीत पण्डाल खाली कराते समय पण्डाल के आपातकालीन द्वार जो खोले जाने चाहिए थे वे नहीं खोले गये। पुलिस की कार्यवाही को लोगों ने दूरदर्शन पर देखा उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कानून का उल्लंघन पुलिस द्वारा किया गया आन्दोलन के लोगों ने समाचार चैनलों को बताया कि पुलिस ने अपनी करतूतों को छिपाने के लिए पण्डाल में लगे सारे सी.सी. कैमरे खोज-खोज कर जब्त कर लिये अन्यथा वास्तव में दोषी कौन है ये कैमरे से स्वयं ही पता लग जाता।
पुलिस ने सारी कार्यवाही इस तरह की कि जिससे भीड़ में भगदड़ मच जाये और किसी भी दुर्घटना की जिम्मेदारी भीड़ पर तथा कार्यक्रम के आयोजकों पर डाली जा सके। इस कार्य के लिए समाचारों के अनुसार ७ हजार दिल्ली पुलिस के जवान तथा ७ हजार सी.आर.पी.एफ. के जवान पण्डाल को प्रात:काल तक खाली करने के लिए लगाये गये, ऐसा किसी भी जनतान्त्रिक देश में होने की कल्पना नहीं की जा सकती। पुलिस ने अपनी कार्यवाही को सही साबित करने के लिए ८-१० लोगों पर देशद्रोह का आरोप लगया है। यह सब सरकार को जरूरी इसलिए लग रहा था क्योंकि अगले दिन देवबन्द के लोगों ने २५ हजार की संख्या में दिल्ली पहुंचने की घोषणा कर दी थी। अण्णा हजारे ने अपने समर्थकों के साथ आन्दोलन में सम्मिलित होने की घोषणा कर दी थी। दिल्ली के आटो चालकों ने आन्दोलन को समर्थन दे दिया था, जिसके कारण आने वाले दिनों में आन्दोलन और उग्र रूप धारण कर सकता था। अत: इसी रात को सरकार आन्दोलन को कुचल कर समाप्त कर देना चाहती थी, इसी कारण यह सब शर्मनाक काण्ड पुलिस और सरकार द्वारा किया गया। अच्छा होता सत्याग्रह को संघर्ष न बनने दिया जाता और बचने के उपाय कर के पुलिस को अपना कार्य करने देते, संभव था परिणाम अनुकूल होता या फिर विचार के लिए संसदीय स्थायी समिति को भेजा जाता।
सरकार ने भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन को भाजपा, राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ और दूसरे राजनीतिक लोगों से जोडक़र इसकी शक्ति को समाप्त करने का प्रयास किया है और कर रही है। इस प्रकार सरकार ने जनता के आन्दोलन को बाबा रामदेव का आन्दोलन बना दिया। दूसरी ओर सरकार अण्णा हजारे के आन्दोलन को असफल करने के लिए कई उपाय काम में ले रही है। सरकार अपना बिल बनाकर इनसे मनवाना चाहती है। सरकार ने भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन में जनता की एकजुटता को बाबा रामदेव के विरुद्ध अण्णा हजारे को अलग करके कमजोर किया तथा बाबा रामदेव के साथ सरकारी चालाकी करके आन्दोलन को समाप्त करने का प्रयास किया। यह ठीक है आन्दोलन का उग्र रूप इस समय ठण्डा पड़ गया हो परन्तु जनता की जागरूकता ऐसे समाप्त होने वाली नहीं है।
भ्रष्टाचार आज आन्दोलन का एक प्रमुख आधार बन गया है। अण्णा हजारे के लोकपाल बिल को सरकार ठण्डा करने के प्रयास में लगी है। पहले तो समिति के सरकारी सदस्य बिल के प्रावधान से सहमत नहीं हैं, राजनीतिक दलों को इसके विरुद्ध तैयार किया जा रहा है जिससे संसद में इसे विवादास्पद बनाया जा सके, इससे ये संसद की उठा-पटक में उलझ जाये।
इस प्रकार भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष प्रारम्भ है, समाप्त नहीं हुआ है। इस आन्दोलन को जनता का आन्दोलन बना के जीवित रखना आवश्यक है। दुनिया में असत्य-सत्य सदा ही रहे हैं और रहेंगे। सत्य को स्थापित होने के लिए प्राय: संघर्ष करते रहना पड़ता है। असत्य बिना प्रयास के बढ़ता रहता है। इसलिए शास्त्रकारों ने कहा है कि कुछ लोग संघर्ष प्रारम्भ नहीं करते, कुछ प्रारम्भ कर के बीच में ही छोड़ देते हैं, धैर्यशील लोग संघर्ष को परिणाम तक पहुंचा कर ही दम लेते हैं-
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचै:,
प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्या:।
विघ्नै: पुन: पुनरपि प्रतिहन्यमाना:,
प्रारम्भ चोत्तमजना न परित्यजन्ति।।
- धर्मवीर
परोपकारी (जुलाई प्रथम २०११)