सरलता, सादगी, निस्पृह भाव से भरा व्यक्तित्व उसके इन गुणों से बाह्यस्वरूप को किसी भी प्रकार से भव्य नहीं बनाते थे। गहरा रंग, छोटा कद, दुबला शरीर उसके भीड़ में खो जाने के लिए पर्याप्त था परन्तु डॉ. कुशलदेव के कार्य ने उन्हें ऋषि दयानन्द से सम्बन्धित इतिहास की खोज संग्रह और लेखन के द्वारा अनुसंधानकत्र्ताओं की श्रेणी में खड़ा कर दिया है।
ऋषि दयानन्द का इतिहास अनेक भागों में बंटा है। एक ऋषि के लेखन का इतिहास जिस पर श्री युधिष्ठिर मीमांसक ऋषि दयानन्द के ग्रंथों का इतिहास लिखकर प्रकाश डाला। इसी ऋषि दयानन्द के पत्रों का संकलन जिसे स्वामी श्रद्धानन्द से लेकर मीमांसक जी तक ने किया। ऋषि के चित्रों के संग्रह में प्रमुख भूमिका निभाई श्री मामचन्द जी खतौली ने जिन्होंने अपना धन व्यय कर, अनेक स्थानों की यात्रा करके, घोर परिश्रम किया और ऋषि के वास्तविक चित्रों का संग्रह किया। इस कार्य में श्री मीमांसक जी का सहयोग और मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। जिसका विवरण उन्होंने ऋषि दयानन्द के ग्रंथों के इतिहास में दिया है। ऋषि दयानन्द के जीवन सम्बन्धी सामग्री की खोज में पं. लेखराम, पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय ने अथक परिश्रम किया, यह इतिहास का दुर्भाग्य रहा कि देवेन्द्र बाबू अपने संग्रह को लेखन में बदलते उससे पूर्व उनका स्वर्गवास हो गया। उस सामग्री को व्यस्थित कर पुस्तकरूप पं. घासीराम जी ने दिया। यदि देवेन्द्र बाबू इसे लिखते तो यह इससे तीन गुना बड़ा होता। बड़े जीवन चरितों के लेखन के क्रम में पं. लेखराम, पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, पं. घासीराम, श्री हरबिलास शारदा ने मूल सामग्री का उपयोग किया है। जीवन चरितों की सामग्री से लिखे गये जीवन चरित हिन्दी सहित अनेक भाषाओं में लिखे गये हैं संस्कृत में पं. अखिलानन्द, आचार्य मेधाव्रत जी के जीवन में बड़े हैं हिन्दी में इस कड़ी में लिखा गया सबसे नया प्रयास डॉ. भवानी लाल भारतीय का है। ऋषि दयानन्द के जीवन के स्थान, व्यक्ति, ऋषि के विषय में कथन इस विधा पर कार्य करने वाले अकेले डॉ. कुशलदेव है। डॉ. कुशलदेव को कैसे प्रेरणा हुई इस विषय में तो उनसे कभी चर्चा न हो पाई परन्तु उनके प्रारम्भिक लेखन में मराठी लेखकों के साहित्य में ऋषि दयानन्द विषयक सामग्री की उन्होंने खोज की और उसे प्रकाशित करने के लिए पत्रिकाओं में भेजा। पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने इस कार्य के महत्व को समझा और वेदवाणी पत्रिका में उनके लेखों को प्रकाशित करते हुए उन पर प्रशंसा पूर्ण सम्पादकीय टिप्पणियां दीं जिससे डॉ. कुशलदेव की अनुसंधान यात्रा निरन्तर जारी रही अपितु आर्यसमाज की सभी पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशन होता रहा। मीमांसक जी ने वेदवाणी के माध्यम से उनके लेखों का संग्रह प्रकाशित किया। हिण्डौन से प्रभाकर जी ने दो तीन पुस्तकें प्रकाशित कर डॉ. कुशलदेव की ऋषि दयानन्द सम्बन्धी सामग्री को स्थायी करने में जो योगदान किया है वह सराहनीय है। यह एक सन्तोष की बात हो सकती है कि डॉ. कुशलदेव जी का अनुसंधान कार्य, लेखन और प्रकाशन के द्वारा साथ-साथ सुरक्षित होता रहा। आज असमय डॉ. कुशलदेव के निधन से जो अपूरणीय क्षति समाज को हुई है वह जो कार्य करने में लगे हुए थे वह अधूरा रह गया। उनकी कार्य निष्ठा का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि उनकी अन्तिम यात्रा भी ऋषि जीवन की खोज करते पूरी हुई। वे कलकत्ता में विभिन्न स्थानों और पुस्तकालयों को छान रह थे। जो ऋषि के जीवन से सम्बन्धित है तथा उन-उन पुस्तकालयों को देख रहे थे जिन में ऋषि दयानन्द की समकालीन पत्र-पत्रिकायें उपलब्ध है, यह कार्य उनका अधूरा रह गया।
डॉ. कुशलदेव की विशेषता थी वे उस-उस स्थान को खोजने का प्रयत्न करते थे जिनकी चर्चा ऋषि के जीवन चरित में आई है। वे उस नगर, ग्राम में जाकर उस स्थान को खोजते थे जहां पर ऋषि ने निवास किया था, जहां पर व्याख्यान दिया था, वे जिस नगर में रहे थे उसका पुराना स्वरूप क्या था? वर्तमान में उनके परिवार में कौन-कौन लोग रहते हैं। उनके परिवार में लोगों से मिलकर उन्हें बतलाते थे। ऋषि दयानन्द ने इस घर में कब से कब तक निवास किया था उन्हें जीवन चरित से प्रमाण देकर उनके घर परिवार की ऐतिहासिकता से अवगत कराते थे। उनके चित्र और उनका विवरण लिखकर पत्रिकाओं में प्रकाशित करते थे। इस प्रकार जहां नई सामग्री की खोज होती थी वहीं वर्तमान पीढ़ी के लोगों को पुराने इतिहास से परिचित होने का अवसर मिलता था। बहुत पुरानी स्मृतियों में लौटने पर अनुभव होता है डॉ. कुशलदेव जी ने पूना की यात्रा करके ऋषि दयानन्द से जुड़े स्थल और व्यक्तियों पर कार्य किया था। मराठी साहित्य और साहित्यकारों ने ऋषि के सम्बन्ध में लिखा, चाहे वह विरोध में था या समर्थन में डॉ. कुशलदेव जी ने उनको संग्रह कर प्रकाशित किया। इससे ऋषि दयानन्द का कार्य और व्यक्तित्व की विशालता पर प्रकाश पड़ता है। पं. युधिष्ठिर मीमांसक कहा करते थे महाराष्ट्र के सर्वाधिक विद्वान्, बुद्धिजीवी, प्रतिष्ठित व्यक्ति ऋषि दयानन्द के सम्पर्क में आये और प्रभावित हुए यदि आर्यसमाज उनसे जुड़ा रहता तो मराठी जनमानस में उसका बड़ा स्थान होता परन्तु बाद में आर्यसमाज से जुड़े लोग इस महत्त्वपूर्ण कार्य को करने में असमर्थ रहे जिसके कारण महाराष्ट्र की नई पीढ़ी अपरिचित होती गई। डॉ. कुशलदेव जी ने इस महत्वपूर्ण कार्य को करते हुए बहुत सारे मराठी साहित्य अप्रकाशित ऋषि प्रसंगों को तथा साहित्यकारों को प्रकाश में लाय है। ऋषि के स्थानों के विषय में स्वामी सत्यप्रकाश जी कहा करते थे ऋषि से जुड़े स्थानों पर एक शिलालेख लगाया जाना चाहिए जिसमें यह अंकित हो कि ऋषि दयानन्द इस समय से इस समय तक यहां पर रहे थे। स्वामीजी ने इलाहाबाद में उस स्थान को खोजने का यत्न किया था जहां पहले वैदिक यन्त्रालय स्थापित हुआ था उन्होंने काशी में भी यन्त्रालय की जगह खोजने का प्रयत्न किया था, पता नहीं इस कार्य में वे कितने सफल हो सके।
वैसे तो भारत के पराधीन होने के कारण इनके मन से इतिहास बोध भी समाप्त हो गया है। भारत का भारतीयों का जो इतिहास लिखा है वह अंग्रेजों ने लिखा है जो मूलरूप से इस देश का शत्रु पक्ष है उससे सच्चे इतिहास लेखन की आशा कैसे की जा सकती है। हमारे समाज के इतिहास के लेखन और उसकी सुरक्षा के प्रति जो उदासीनता का भाव है वह आर्यसमाज के संगठन में भी यथावत् है। ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज के संगठन में पुस्तकाध्यक्ष पद रखकर के पुस्तकालय के महत्व को स्थापित किया था परन्तु आर्यसमाज में पुस्तकालय सबसे उपेक्षित है और बहुत समाजों में वह समाप्त हो गया है। हम इतिहास और जड़ पूजा के पृथक् करके नहीं देख पाये। हमने ऋषि दयानन्द की जड़ पूजा के विरोध की बात तो स्वीकार कर ली परन्तु इतिहास के सुरक्षा की बात को नहीं समझ पाये जो उन्होंने ग्यारहवें समुल्लास में सत्यार्थप्रकाश में राजाओं की वंशावली देते हुए बताया है। अजमेर में ऋषि दयानन्द की अन्त्येष्टि के पश्चात् उनके वस्त्र और वस्तुओं को बांट दिया गया था क्योंकि हमारा जड़ पूजा में विश्वास नहीं था। ऋषि दयानन्द से जुड़े ऐतिहासिक स्थलों की खोज और उनकी सुरक्षा में भी हमारा उदासीनता का भाव रहा। ऋषि दयानन्द के जन्म स्थान में भी मूल स्थान का स्वरूप हम सुरक्षित नहीं रख पाये। मथुरा में दण्डी विरजानन्द जी की पाठशाला अपना स्वरूप खोकर एक तीन मंजिला दुकान बनकर रह गयी है। उदयपुर का नोलख महल प्राप्त किया है, उसे उसके मौलिक रूप में रखा जाना इतिहास की सुरक्षा है। जोधपुर के स्मृति भवन को जिसमें ऋषि दयानन्द ने अपने अन्तिम दिनों में निवास किया, उसके सौन्दर्यकरण के नाम पर मूलस्वरूप में परिवर्तन करना इतिहास को नष्ट करने जैसा है इसलिए इसमें धीरे-धीरे होने वाले परिवर्तनों पर ध्यान देकर उन्हें रोकने की आवश्यकता है अजमेर में ऋषि दयानन्द का अन्तिम निवास स्थल और दाहस्थान है। इन स्मारकों की सुरक्षा इतिहास की दृष्टि से आवश्यक है। अजमेर की भिनाय कोठी को भी उसके उसी रूप में नहीं ले सके। पहले यह सभा के पास गिरवी थी परन्तु उसके मालिक उसे बेचकर छुड़ा लिया, सभा उसको खरीद लेती तो उसके स्वरूप की सुरक्षा संभव थी। आज एक दूसरे के साथ थोड़े से स्थान को भव्य बनाने का प्रयास इतिहास के लिए कोई महत्त्व नहीं रखता, जितना महत्व इस स्थान को यथावत् सुरक्षित रखने में । यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि १९८३ में बलिदान शताब्दी के समय राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने इसे आर्यसमाज को देना स्वीकार किया था और राजस्थान के मुख्यमंत्री श्री शिवचरण माथुर ने समारोह के अवसर पर देने की घोषणा की, तब इसे कोई लेने वाला नहीं बना, इसके विपरीत न्यास के मंत्री भूदेव शास्त्री ने सरकार को पत्र लिखा कि हम इसे संभाल नहीं सकते, हमें आवश्यकता नहीं है। जिन लोगों का इस कोठी परिसर में निवास था उन्होनें कलेक्टर को लिखा इस संगठन वाले लोग यहां व्यापार के लिए बाजार बनाना चाहते हैं, अत: हमें बेघर न किया जाय परन्तु इस पत्र का उत्तर न दिये जाने से यह फाइल बन्द हो गई, कार्य जहां का तहां रुक गया।
इसके पश्चात् तत्काल सार्वदेशिक सभा के प्रधान स्वामी आनन्दबोध सरस्वती से सम्पर्क कर इस कार्य को आगे बढ़ाने का आग्रह किया तो एक अज्ञानता भरा पत्र मिला जो सभा में रखा है जिसमें लिखा है सभा अपना कार्य जैसे उचित समझेगी कर लेगी। जब तीन सौ वर्ष बाद दिल्ली चाँदनी चौक की कोतवाली सिक्खों को मिल सकती है तो भिनाय कोठी का पूरा परिसर आर्यसमाज को क्यों नहीं मिल सकता। आज जब महाशय धर्मपाल जी इसके प्रधान बने हैं तो डॉ. रामप्रकाश जी श्री गजानन्द आर्य के अभिनन्दन समारोह पर सार्वजनिक रूप से महाशयजी से आग्रह किया था, महाशय जी नये भवनों में ऋषि का इतिहास नहीं है, इतिहास तो यह है कि जिस दिन ऋषि का देहान्त हुआ उस दिन उस भवन का क्या स्वरूप था व कौनसी वस्तु किस स्थान पर किस रूप में रखी थी उसे वैसे सुरक्षित रखने में है। अत: ऋषि से जुड़ा जो भी स्थान, वस्तु आज हमें प्राप्त है उसे यथावत् रखने का प्रयत्न करना चाहिए। यही इतिहास की सुरक्षा है इसी से ऋषि दयानन्द के जीवन को समझने में सहायता मिलेगी, दर्शक को प्रेरणा मिलेगी।
आज भी ऋषि दयानन्द से जुड़ी वस्तुओं और लिखित सामग्री को खोजने और सुरक्षित करने की आवश्यकता डॉ. कुशलदेव जी ने अपने जीवन को इस कार्य में समर्पित कर दिया, इस कार्य को करते हुए ही कलकता बड़े बाजार समाज में उन्होंने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया, यह समाज उनका चिर ऋणि रहेगा। आर्यसमाज बड़ा बाजार के अधिकारी डॉ. कुशलदेव जी के अन्तिम समय में चेता और सहयोग किया, इसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं। डॉ. राजेन्द्र विद्यालंकार की सूचना पर आर्यसमाज शान्ताक्रुज मुम्बई ने अपनी एम्बुलेंस भेजकर के जो तत्काल सहायता प्रदान की उसके लिए भी वे धन्यवाद के पात्र हैं। कोई मनुष्य किसी को जीवन तो नहीं दे सकता, वह तो परमेश्वर की इच्छा है और व्यवस्था है परन्तु इस कार्य में जो सहयोग संभव है वही इसके कर्तव्य की सीमा है जिसे समाज के लोगों ने पूर्णत निभाया। परिजनों के कष्टों और दु:ख के लिए हमारी परमेश्वर से प्रार्थना है उन्हें धैर्य व सामर्थ्य दे, दिवंगत आत्मा की शान्ति अन्तत वेद के मन्त्र से
नम: पूर्वेभ्य ऋषिभ्य: पथिकृद्भ्यः। (परोपकारी - जनवरी द्वितीय, २०११)