विषय : समाज
शीर्षक : हिन्दू आतंकवाद अज्ञानता या देशद्रोह
लेखक : डॉ. धर्मवीर

               इस देश का इतिहास वेद से प्रारम्भ होता है। भारतीय इतिहास में वेद से पूर्व कुछ होने की बात कोई भी नहीं कह सकता। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है जो कुछ इस देश में है या तो वेद का समर्थक है या वेद का विरोधी। वेद का विरोध हो ही तब सकता है जब वेद का अस्तित्व हो, यह प्रश्न यहां विचारणीय नहीं है, कौन ठीक है या कौन गलत? परन्तु इतना तो सच है एक का अस्तित्व वेद को स्वीकार करने में है दूसरे का अस्तित्व वेद को नकारने में है। वेद से सम्बन्ध रखने के कारण दोनों यहाँ के हैं। समाज का शरीर तो भूमि के पदार्थों से बनता-बढ़ता है और विचार मान्यता सिद्धान्तों से बनती है। सिद्धान्त प्रतिपादक ग्रंथ ही धर्मग्रंथ या शास्त्र कहाते हैं। ये ग्रन्थ मूल रूप में भारतीय जनमानस में वेद ही हैं। अत: यहाँ का प्रथम धर्मग्रंथ वेद और इस देश का धर्म वैदिक ही है। जबतक एक धर्मग्रंथ, एक ईश्वर, एक जीवन पद्धति इस देश में रही उस युग को इस देश का वैदिक युग कहा गया।
               अध्ययन-अध्यापन का समापन होने से भिन्न-भिन्न विचारों का इस समाज में उदय हुआ। इसका कारण समाज के लोगों पर वेदाध्ययन पर प्रतिबन्ध लगाना रहा है। जब समाज में स्त्री-शुद्रों को वेदाध्ययन के अधिकार से वंचित कर दिया तब समाज में दो धारायें विकसित हुई। एक जो इन निर्देशों आदेशों का समर्थन करती थी और दूसरी ओर वे जिन्होंने इसके विरोध में अपने धर्म, अपने धर्मग्रंथ, अपने आदर्श स्थापित किये। ऐसे सम्प्रदायों में चार्वाक, जैन, बौद्ध, वाममार्ग आदि मत मतान्तर उत्पन्न हुए जिन्होंने ब्राह्मण धर्म का विरोध कर उन द्वारा प्रतिपादित वेद ईश्वर धर्म को मानने से इंकार कर दिया परन्तु विचार भिन्न होने पर उनके देश, समाज, परम्परा में विशेष विरोध नहीं हुआ, विरोध हुआ तो भी शास्त्रार्थ के स्तर पर। जहां युद्ध स्तर का विरोध दीखता है वहां राज्य आधारित धर्म के कारण हुआ जैसा बौद्ध, जैन व ब्राह्मण धर्म के मध्य देखा जाता है। इन विचारधाराओं ने इस देश के जन सामान्य के जीवन में कोई उथल-पुथल नहीं मचाई, यह इनके मूल रूप में एक होने के कारण संभव हुआ।
               वेद के समाप्त होने के पश्चात् जिन मतों का उदय इस देश में हुआ है वे वेद समर्थक होकर भी पौराणिक धर्म थे क्योंकि उनका अध्ययन-अध्यापन श्रवण उपदेश पुराणों तक ही सीमित था। इसी पौराणिक धर्म को हम हिन्दू धर्म कहते हैं। इसी कारण इस देश के पौराणिक धर्म और वेद विरोधी धर्मों की जीवन सम्बन्धी मान्यतायें यथावत् थी जबकि विदेशी धर्म के सिद्धान्त और जीवन पद्धति इस देश व समाज की मान्यताओं के विपरीत ही नहीं विरोधी थीं।
               भारतीय समाज की वैचारिक एकता खण्डित होने के परिणामस्वरूप इस देश के इतिहास का तीसरा युग प्रारम्भ होता है वह है इस्लामिक युग। पहला समय पूर्णरूपेण एक विचार, एक आचार का था इसलिए यह युग इस देश के इतिहास में वैदिक युग के नाम से जाना जाता है। जब एक विचारधारा समाप्त हुई उसके स्थान पर नाना मतमतान्तरों ने जन्म लिए समाज और देश छोटे राज्यों में विभक्त होता गया, समाज भी अनेक धर्म अनेक धर्माचार्य, अनेक गुरु, अनेक धर्मग्रंथों में बंट गया, वह इस देश का पौराणिक युग कहलाया। जब बाहरी आक्रमण होने लगे और उन आक्रमणों से देश पराधीन होने लगा, देश में विदेशी शासन और विदेशी विचार ने अपने पैर जमाये उस समय यहां का समाज मिश्रित रहा वह तीसरा पौराणिक और इस्लामिक युग इस देश के इतिहास में आया। इसके पश्चात् जो धर्म  अधिक प्रचारित हुआ वह है ईसाइयत का युग। इस देश के इस तीसरे और चौथे युग में एक समानता और एक भिन्नता है, समानता तो यह है दोनों आक्रान्ता अपने साथ अपने मत अपने विचार, अपने गुरु, अपने धर्मग्रंथ लेकर इस देश में आये परन्तु एक आक्रमण धार्मिक समझा गया जबकि दूसरा राजनैतिक, अरब ने इस देश पर आक्रमण किया परन्तु अरब के आक्रमण को अरब का आक्रमण नहीं कहा गया जबकि ब्रिटेन का आक्रमण अपने साथ इस देश के लिए धर्म के नाम पर ईसाइयत लेकर आया परन्तु ब्रिटेन के आक्रमण को ईसाइयत का आक्रमण न कहकर अंग्रेज का आक्रमण कहा गया, दोनों में इतना ही अन्तर था एक अपने को धर्म को आगे रखकर उसके लिए स्वयं को मानता था तो दूसरा अपने आक्रमण सही साबित करने उसे दृढ़ बनाने के लिए इस देश में अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करने का इच्छुक था। यही कारण हुआ कि इस देश में शासक के अनुसार धर्म का प्रचार हुआ। इस्लामी शासकों ने इस्लाम का प्रचार-प्रसार किया, दूसरे ने ईसाइयत एक प्रत्यक्षत: क्रूर था दूसरा क्रूर तो उतना ही था परन्तु सभ्यता का लबादा ओढ़े था। तीसरे की सत्ता नहीं थी क्योंकि उसका धर्म एक नहीं था, उसका गुरु एक नहीं था, उसका भगवान भी एक नहीं था, समाज में न उसकी सत्ता थी न सत्ता का कोई धर्म था वह तो पुरानी परम्परा का जन्म-जन्मतान्तर से निर्वाह करता आ रहा था, लोगों ने उसे हिन्दू नाम दिया, उसने उसे स्वीकार कर लिया इसमें उसे कोई आपत्ति नहीं थी, हिन्दू के पास परिवार के बाद उसे जोडऩे वाली एक चीज है जाति, जो हिन्दू को सामाजिक दृष्टि से एकता प्रदान करती है परन्तु जाति और हिन्दूपन के बीच में कोई सम्बन्ध नहीं जो इन जातियों को हिन्दू घोषित कर सके क्योंकि सारे हिन्दू समाज में ऐसी कोई परम्परा, कोई सिद्धान्त, कोई मान्यता या कोई आचार-विचार एक जैसा और मान्य नहीं है जिसको सारा हिन्दू समाज स्वीकार करता है और जिसके आधार पर इस समाज केा हिन्दू कहा जा सके। इसी कारण सिक्ख हिन्दू हैं भी और नहीं भी, बौद्ध और जैन भी इसी श्रेणी में आते हैं। वे अपने को हिन्दू मानते भी हैं, नहीं भी मानते। इसपर अधिकांश लोगों द्वारा इस समाज में जिन परम्पराओं को स्वीकार किया ऐसा समाज हिन्दू कहलाया। ऐसा हिन्दू अपना कर्म करना तो भूल गया परन्तु कर्मफल के सिद्धान्त पर आज भी उसका दृढ़ विश्वास है। अत: आज भी वह सोचता है जो उसके साथ बुरा करेंगे, भगवान उसे उसके किये का फल अवश्य देंगे परन्तु वह भूल जाता है कि जो उसे करना चाहिए था और उसने नहीं किया इसका भी तो फल होता है जिसे वह भोग रहा है और जबतक वह कत्र्तव्य नहीं करेगा तबतक भोगता रहेगा। सिद्धान्त धर्म के माध्यम से मनुष्य कितने गहरे तक उतर जाता है उसे एक घटना से समझा जा सकता है, घटना शास्त्रार्थ महारथी अमर स्वामी जी की है जिसे आर्य भजनोपदेशक ओम्प्रकाश वर्मा यमुनानगर वालों से अनेक बार सुना है-
               एक बार अमरस्वामी जी और वर्मा जी देहली से हरिद्वार की यात्रा कर रहे थे, हापुड़ के आसपास एक भीख मांगने वाला व्यक्ति जो दोनों आंखों से अन्धा था उनके डिब्बे में चढ़ गया, स्वामी जी के पास आने पर उन्होंने उसे अपने पास बिठा लिया, साथ लाये सामान में से उसे खाने के लिए दिया और कुछ पैसे भी उसे भिक्षा में दे दिये। जब वह बैठकर स्वामी जी से बातें कर रहा था तब अमर स्वामी जी ने उससे पूछा क्यों भाई तुम्हारी आँखें कैसे चली गई, उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- स्वामी जी अल्ला की मरजी है, वह जिसे चाहे आंख दे और जिसे चाहे न दे। मैं तो अल्ला की मरजी से अन्धा हूँ। यह कहकर वह तो आगे चला गया परन्तु मेरठ के पास एक और ऐसा ही अन्धा व्यक्ति फिर उनके डब्बे में चढ़ गया और मांगता हुआ जब वह स्वामी जी के पास पहुंचा तो स्वामी जी ने उसे भी खाने को दिया, कुछ पैसे दिये और उसे अपने निकट बैठाकर वार्तालाप करने लगे तथा उससे भी वही प्रश्न पूछ डाला- क्यों भाई तुम कैसे अन्धे हो गये, तो उसने बड़े सहज भाव से उत्तर दिया- स्वामी जी यह अपने कर्मों का फल है। आपने आंखों से कुछ अच्छे काम किये होंगे, प्रभु ने आपको आंखे देकर भेजा। मेरे से गलती हुई होगी जो भगवान ने मेरी आंखें ले ली, यह तो कर्मों का फल है। यही अन्तर है एक मुसलमान और एक हिन्दू में। अन्तर है मुसलमान का खुदा जो चाहता है सो करता है, हिन्दू का भगवान जैसा व्यक्ति करता है वैसा फल देता है। अब सोचा जा सकता कि आतंकवादी कौन हो सकता है? जो स्वयं कुछ नहीं करता वह तो जो खुदा कराता है वह करता है या वह जो जानता है कि जैसा वह करेगा उसके अनुरूप ही उसे फल मिलेगा।
               जब हम हिन्दू शब्द का प्रयोग करते हैं ऐसे लोगों के लिए करते हैं जो कर्म को, कर्मफल को, पुनर्जन्म को, अहिंसा, दया, उदारता आदि सद्गुणों को प्राणी मात्र के लिए स्वीकार करते हैं, यह एक सामाजिक धारणा है। व्यक्ति इसमें अपवाद हो सकते हैं परन्तु जब समाज पर दोषारोपण करते हैं तो या तो आप समाज के स्वभाव, प्रकृति, परम्परा से परिचित नहीं है या आप अपने प्रति ईमानदार नहीं है। यदि हिन्दू आतंकवादी है तो यदि चिदम्बरम या दिग्विजय ने धर्म न बदल लिया हो तो वे भी हिन्दू होने से आतंकवादी होंगे। क्योंकि हिन्दू आतंकवाद हिन्दू में ही तो रहेगा। यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है मुस्लिम आतंकवाद का आधार धर्म है, एक विचार है, एक खुदा है, एक कुरान है जिसके नाम पर वह विश्व में आतंकवाद फैला रहा है। यदि हिन्दू आतंकवाद फैला भी रहा है तो मुसलमान को हिन्दू बनाने के लिए तो नहीं फैला रहा है। उस हिन्दू के समर्थन में चिदम्बरम् और दिग्विजय सिंह जैसे हिन्दू ही नहीं फिर कौनसा संगठन देश, समाज उसके साथ है? वास्तविकता यह है कि हिन्दु का कुछ भी एक नहीं है उसका धर्म एक नहीं, उसके आचार्य गुरु एक नहीं, उसका कोई एक संगठन नहीं। फिर वह किसको अपने पीछे लगाये और क्येां लगाये, उसने इतिहास में जब भी कुछ किया व्यक्ति के नाते किया है दो पैसे के लिए किया है, पापी पेट के लिए किया है, अपने बाल-बच्चों के लिए किया है, इसलिए उसे ईसाई का समर्थन करने में, इस्लाम के समर्थन में खड़े होने में, कम्युनिस्ट बनकर हिन्दू विरोध करने में, उसे कोई परेशानी नहीं आती फिर भी आप उसे आतंकवादी कहते हैं तो इसका मतलब इतना ही है कि आपको उसका बचा-खुचा अस्तित्व भी स्वीकार नहीं है। आप उसे इस देश से मिटाने वालों के साथ खड़े हैं। आप हिन्दू आतंकवाद कहकर मुस्लिम आतंकवाद को उचित ठहरा रहे हैं और उसके अपराध को कम कर रहे हैं तथा हिन्दू कहलाने वाले व्यक्ति के मन में अपराध बोध जगाने का प्रयत्न कर रहे हैं। यदि हिन्दू आतंकवादी होता तो प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह देश की सम्पत्ति पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का है, यह कहने का दु:साहस न करते। हिन्दू आतंकवादी होता तो उसे पाकिस्तान व बंग्लादेश से भागना नहीं पड़ता और अपने ही देश में कश्मीर से निकलकर लाखों हिन्दुओं को दर-दर भटकना नहीं पड़ता। अत: हिन्दुओं को आतंकवाद से जोडऩा देश के बहुसंख्यक को अपमानित करना है।
               यहाँ हमें एक बात स्मरण रखनी होगी, यह हिन्दू जैसा भी हो, चाहे जितना भी कमजोर हो परन्तु इस देश का, इस भूमि का वास्तविक प्रतिनिधि वही है। यदि सारा देश ही मुसलमान या ईसाई हो जाये, जैसा अरब, ईरान, ईराक हो गये तब भी इस देश का विचार हिन्दू ही होगा, इस देश के मूल निवासी को आर्य या हिन्दू ही कहेंगे। इसके बाद भी कोई व्यक्ति इस्लामी आतंकवाद से हिन्दू आतंकवाद की तुलना करता है तो वह अपराधी के अपराध को छुपाना चाहता है। दुर्जनतोष न्याय से यदि मान भी लिया जाय कि किसी हिन्दू ने किसी को मारा है तो वह भी आतंकवाद के श्रेणी में नहीं आ सकता क्योंकि आतंकित व्यक्ति की प्रति क्रिया को आतंकवाद नहीं कहते। जब हम हिन्दू आतंकवाद के बदले मुस्लिम आतंकवाद की बात करते हैं तो हम सामान्य हिन्दू के मन में अपराध बोध पैदा करते हैं। सारा हिन्दू भी आक्रान्त हो जाये तो भी आतंकवादी नहीं कहला सकते। हिन्दू को आतंकवादी कहना चोर साहूकार दोनों को कटघरे में खडऩा करने जैसा है। यदि इस हिन्दू समाज का एक विचार, एक सिद्धान्त, एक धर्म, एक धर्म ग्रंथ होता तो यह समाज बिना किसी आतंक के ही विश्व पर शासन करता परन्तु अपने ज्ञान, बुद्धि के बल से रहित होकर कमजोर कायर होकर अपने देश धर्म से वंचित हो रहा है। इस देश का दुर्भाग्य रहा है कि इस देश के समाज में ऊँचनीच, छुआछूत और जाति प्रथा के चलते अपने व्यक्ति को भी उसने अपना नहीं समझा तथा समाज के व्यक्ति के समाज के प्रथक् हो जाने पर भी विधर्मी  होने पर भी अपनी हानि नहीं समझी और इसके विपरीत अपने समाज से दूर हुये और विधर्मी बने व्यक्ति को अपने समाज में सम्मिलित होने से बलपूर्वक रोका, इस कारण इस देश के लोग बड़ी संख्या विधर्मी बने और इस प्रकार हिन्दू धर्म व हिन्दू समाज का नाश हुआ। आज जब चिदम्बरम् भगवा आतंकवाद कहते हैं तो मुलायम मुस्लिम परस्ती का दम्भ भरते हैं। दिग्विजयसिंह हिन्दू संस्थाओं को आतंकवादी कहते हैं, राहुल गांधी संघ की सीमी से तुलना करते हैं, विदेशी लोगों के सामने हिन्दू आतंकवाद को मुस्लिम आतंकवाद से बड़ा खतरा बताते हैं तो निश्चित रूप से अपने को यहां के हिन्दू समाज से अलग करके देखते हैं। सोनिया गांधी का हिन्दू न होना, हिन्दू विचार का न होना स्वाभाविक है और वे जन्म से ईसाई हैं। उनकी सन्तान भी ईसाई है परन्तु इस देश में वे हिन्दू का विरोध करते हैं, हिन्दू को आतंकवादी कहते हैं तो वे सचमुच इस देश के चौथे ऐतिहासिक युग के कर्णधार होंगे, जब यह देश वैदिक युग से पौराणिक युग में आया, पौराणिक युग से इस्लामिक युग में आया फिर  इस्लामिक पौराणिक युग आया फिर पौराणिक इस्लामिक और ईसाइयत के युग में आया। अब बारी है इस देश में पौराणिक युग समाप्त होकर ईसाई और इस्लामिक युग की बात ही शेष रहे। हिन्दू आतंकवाद कहने के फलितार्थ यही निकलते हैं। जिस समाज को देश में प्रतिक्रिया का अधिकार नहीं, उसे जीने कौन देगा, आज यही इस समाज को सोचना है। गीता में ऐसे हिन्दू के लिये कहा गया है-
               कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
               अनार्यजुष्टमस्वग्र्यमकीर्तिकरमर्जुन।।