१२ अक्टूबर १९३६ को थामस बैबिंगटन मैकाले ने अपने पिता को एक पत्र लिखकर बताया कि यदि उसके द्वारा प्रारम्भ की गई शैक्षणिक नीति चलती रही तो यहाँ (भारत) की सम्मानित जातियों में एक भी मूर्तिपूजक नहीं बचेगा, लेकिन उससे पहले ज्ञान, बुद्धि और विकासशीलता में आये वैचारिक परिवर्तनों का व्यापक प्रभाव दिखाई देने लगेगा। सन् १८५३ में संसदीय समिति के सम्मुख भारत में प्रयोग किये जाने वाले शिक्षा के तौर-तरीकों के संदर्भ में राजनीतिक सोच को चाल्र्स ट्रेवेलियन ने भी कुछ इसी रूप में प्रस्तुत करते हुए कहा था कि अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव से भारतीय युवक हमें विदेशी समझना बंद कर देंगे और धीरे-धीरे उनकी हिन्दुस्थानियत कम होती जायेेगी तथा अंग्रेजियत बढ़ती जायेगी, जिसके फलस्वरूप वे हमें इस देश से निकालने का कोई भी प्रयास नहीं करेंगे।
मैकाले की इसी मानसिकता का नतीजा है कि आज अंग्रेजी के माध्यम की शिक्षा ही नहीं अपितु अंग्रेजी बोलने पर गर्व की अनुभूति करने वाले भारतीयों का समूह भी अपने देश में देखा जा सकता है। अंग्रेजी का ज्ञान अर्जित करना उपयुक्त हो सकता है, लेकिन अंग्रेजियत के नाले में डूब जाना किसी भी प्रकार की बुद्धिमत्ता का परिचायक नहीं हो सकता। कैसी विचित्र स्थिति है कि देश या दुनिया में लिखी गई अधिकांश इतिहास की पुस्तकों में समय-काल का उल्लेख करते समय ईसा पूर्व (बी.सी.) या ईसा उपरांत (ए.डी.) शब्दों का प्रयोग किया गया है अर्थात् ईसवीय सन् ही इस सम्पूर्ण सृष्टि की कालगणना को प्रकट करने वाला एकमात्र माध्यम है। वैश्विक स्तर पर इस झूंठ को रोकने की हमने भी कोई कोशिश नहीं की। इतना ही नहीं आजादी के बाद अपने देश का नाम तक बदल डाला और देश के संविधान में 'इंडिया, दैट इज भारज' का उल्लेख अंग्रेजों ने हमारे लोगों से बड़ी सावधानीपूर्वक करवा लिया। इसके पीछे भी यही धारणा काम कर रही थी कि भारत को भूल जाओ, इंडिया याद रखो, अंग्रेजों की गुलामी याद रखो, क्योंकि भारत को याद रखने पर भरत याद आयेंगे। शकुंतला और दुष्यंत याद आयेंगे, हस्तिनापुर याद आयेगा, प्राचीन सभ्यता एवं परम्परा ही नहीं अनेक पूर्वज भी याद आयेंगे।
आजादी के बाद भी भारत की इसी सोच ने हमारी वेशभूषा बदल दी, टाई लगाना फैशन हो गया, परिवारों से भारतीयता का लोप होने लगा, पर्व और त्यौहार मनाने के तौर-तरीके बदलने लगे, केक काटकर और मोमबत्ती बुझाकर जन्मदिन का उत्सव मनाना आधुनिकता का परिचायक बन गया।
वास्तव में यह भी केवल अंग्रेजियत के दुष्प्रभाव का ही परिणाम है कि हम अपने जीवनमूल्य और संस्कार गंवाते चले जा रहे हैं। स्वतंत्र भारत की प्रथम सरकार ने नवम्बर १९५२ में पंचांग सुधार समिति का गठन डॉ. मेघनाद साहा की अध्यक्षता में करके भारतीय पंचांगों का अध्ययन करवाया। सात सदस्यीय समिति में १८ फरवरी १९५३ को अपना प्रतिवेदन अंग्रेजी की, उच्च शिक्षा और अंग्रेजियत के संस्कार प्राप्त पं. जवाहरलाल नहेरू को प्रधानमंत्री होने के नाते प्रस्तुत किया। इस समिति को देश के पंचांग पसंद नहीं आये और ग्रेगेरियन (ईसाई) कैलंडर की प्रशंसा करके इसे लागू करने की अनुशंसा कर दी गई जबकि इस कैलेंडर में न तो कोई वैज्ञानिकता है और न ही ग्रहों-नक्षत्रों की स्थिति का विश्लेषण। इतना ही नहीं, सन् १७५२ ई. से पूर्व इस कैलेंडर में २५ मार्च को वर्ष का प्रथम दिन माना जाता था, लेकिन चर्च और ब्रिटिश साम्राज्य की मिलीभगत से एक जनवरी, वर्ष का प्रथम दिन घोषित कर दिया गया। ऐसा लगता है कि २५ मार्च के आसपास ही नव विक्रमीसंवत् का प्रथम दिन होने के कारण इसे १ जनवरी कर दिया गया। वैसे तो जिस ईसाइयत में ईसा के जन्मदिन पर ही विवाद हो, वहां का कैलेंडर पूर्ण कैसे हो सकता है? ग्रीक चर्च ७ जनवरी को ईसा का जन्मदिन बताता है। इस्ररायल ६ जनवरी को जन्मदिन सामूहिक भोज दिवस के रूप में मनाता है। ५३० ई. से २५ दिसम्बर को ईसा का जन्मदिन कहा जाने लगा। यह रहस्येद्घाटन 'लाइफ ऑफ क्राइस्ट' के लेखक डीन फरार ने अपनी पुस्तक में किया है। ऐसी अवस्था में इस कैलेण्डर को ही प्रशंसा मिलने के पीछे हमारी अंग्रेजी सोच ही दिखाई दे रही है। इस कैलेंडर में कोई मास तीस दिन, कोई इकत्तीस दिन, कोई अट्ठाईस या उन्तीस दिन का होता है। प्रतिदिन ९ मिनट ११ सैकेंड का कोई हिसाब नहीं। मासों के दिन निर्धारण में कोई क्रमबद्धता नहीं। इस कैलेंडर में चार माहों की गणना संख्याओं के आधार पर की गई है, जिसमें सितम्बर सातवां, अक्टूबर आठवां, नवम्बर नवा तथा दिसम्बर दसवां महीना होना चाहिए, लेकिन सितम्बर को नवां, अक्टूबर को दसवां, नवम्बर को ग्यारहवां और दिसम्बर को बारहवां मास दर्शाया गया है, ऐसा क्यों?
जूलियस सीजर के नाम पर जुलाई, आगस्टन के नाम पर अगस्त, एटलस की पुत्री के नाम पर मई, मलिका जौन के नाम पर जून मास का निर्धारण करने वाले इस कैलेंडर के द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण की कौन-सी परिवर्तनशीलता को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है? फिर भी हम भारत के लोग आजादी की हवा में अंग्रेजियत को ही लादकर घूमने में गर्व की अनुभूति कर रहे हैं।
पंचांग समिति ने अपनी रिपोर्ट को न्यायोचित ठहराने के लिए एक ऐसे पंचांग को इस ईसाई कैलेंडर का पिछलग्गू बना दिया जिसे न तो जनता अंगीकृत करती है और न ही भारत की सरकार। उसे हम शक संवत् पंचांग के नाम से जानते हैं। इस संवत् का प्रारम्भ भी २२ मार्च से माना जाता हैं। इस पंचांग में ग्रह नक्षत्रों की गति या प्राकृतिक परिवर्तनशीलता को आधार नहीं बनाया गया है। समीकरण जन्म लेते ही यह पंचांग भी अपनी मौत मर गया और ईसवी कैलेंडर ही समस्त राजकीय कार्यों का आधार बना दिया गया। परिणाम यह हुआ कि १ जनवरी भारत के लोगों को अपने नववर्ष के रूप में दिखाई देने लगा और हम एक दूसरे को शुभकामनाएं देकर अपने को गौरवान्वित महसूस करने लगे।
कैसा दुर्भाग्य है कि इसी कैलेंडर की एक अप्रैल को हमने देश की वित्तीय व्यवस्था को संचालित करने वाले वित्तीय वर्ष का प्रथम दिन स्वीकार कर लिया, लेकिन अंग्रेजियत में पले लोगों ने हमें पढ़ा दिया कि पहली अप्रैल मूर्खों का दिन है और हम दौड़ पड़े मूर्ख दिवस मनाने के लिये। पहली अप्रैल को अगर हमने किसी को मूर्ख बना लिया तो धन्य हो गये। हमने कभी सोचा नहीं कि मूर्ख तो हम ही बन गये हैं।
अंग्रेजों की पूंछ पकड़कर चलते-चलते हमने यह भी मान लिया कि रात १२ बजे दिन का परिवर्तन होता है, क्योंकि अंग्रेज विद्वानों ने हमें पढ़ाया है। हम शायद भूल गये हैं कि इंग्लैण्ड और भारत में पांच घंटा तीस मिनट के समय का अन्तर होता है। जब इंग्लैण्ड में रात का १२ बजता है तो भारत में प्रात:काल का पांच बजकर तीस मिनट होता है और हमारी प्राचीन मान्यता है कि प्रात:काल ही दिवस परिवर्तन सूर्योदय के साथ सम्पन्न होता है।
वस्तुत: अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों को अंग्रेजों ने नौकरी का ऐसा लालच दिया कि जन्म लेते ही हम अंग्रेजी सिखाने पर जोर देने लगे। आज तो वैश्वीकरण की दौड़ में अंग्रेजी अनिवार्य लगती है। जब हमने ही अपनी भाषा पर गर्व नहीं किया तो दुनियाँ हमारे साथ क्या चलेगी। किंग जार्ज मेडिकल कॉलेज में किंग जार्ज का नाम हटाने पर आपत्ति करने वालों ने भारत के स्थान पर इंडिया के प्रयोग में अपनी आपत्ति क्यों नहीं दर्ज करायी?
आइये, ईस्वी नवर्ष पर विचार करें कि क्या ईसा से पूर्व भारत का कोई अस्तित्व या गौरव था या नहीं। इतिहास के पन्ने गवाह हैं कि हम कभी जगत्-गुरु थे, ज्ञान-विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में अद्भुत प्रतिभाएं हमारे पास थीं। हमारे इतिहास, साहित्य, जीवन मूल्य तथा जीवन के प्रति दृष्टिकोण में विकृतियाँ लाने का सतत प्रयत्न मैकाले के मानस पुत्रों ने विगत १५० वर्षों में किया है। उसी का दुष्परिणाम है कि १ जनवरी को हम अपना नववर्ष मनाने की भूल कर रहे हैं। मैकाले द्वारा १७२ वर्ष पूर्व अपने पिता को लिखे गये पत्र की कल्पना को साकार करने में चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने सहयोग करने की लगातार गलती कर रहे हैं। आत्मविस्मृति के मार्ग को त्याग कर परकीय दासता के बाद स्वतंत्र राष्ट्र जीवन का संचालन करके, आइये हम सब अपनी कालजयी संस्कृति के आधार पर भावी भारत का नवनिर्माण करें और अपने ऊपर गर्व करें।