ऋषि दयानन्द ने अपनी छोटी-सी किन्तु महत्त्वपूर्ण पुस्तक गोकरुणानिधि लिखते हुए उसका एक सन्दर्भ इस प्रकार लिखा है-
‘‘इनसे यह ठीक है कि गो आदि पशुओं के नाश होने से राजा और प्रजा का भी नाश हो जाता है, क्योंकि जब पशु न्यून होते हैं तब दूध आदि पदार्थ और खेती आदि कार्यों की भी घटती होती है। देखो इसी से जितने मूल्य से जितना दूध और घी आदि पदार्थ तथा बैल आदि पशु ७०० वर्ष के पूर्व भी मिलते थे, उतना दूध घी बैल आदि पशु इस समय दस गुणे मूल्य में भी नहीं मिल सकते। क्योंकि सात सौ वर्ष के पीछे इस देश में गवादि पशुओं को मारने वाले मांसाहारी विदेशी मनुष्य बहुत आ बसे हैं। वे इन सर्वोपकारी पशुओं के हाड, मांस तक भी नहीं छोड़ते, ‘नष्टे मूले नैव पत्रं न पुष्पम्’ जब कारण का नाश कर दे तो कार्य नष्ट क्यों न हो जावे।
हे मांसाहारियों तुम लोग जब कुछ साल के पश्चात् पशु न मिलेंगे तब मनुष्यों का मांस भी छोड़ोगे या नहीं।
हे परमेश्वर तू क्यों इन पशुओं पर, जो कि विना अपराध मारे जाते हैं, दया नहीं करता, क्या उन पर तेरी प्रीति नहीं है? क्या इनके लिए तेरी न्याय सभा बन्द हो गई है? क्यों उनकी पीड़ा छुड़ाने पर ध्यान नहीं देता और उनकी पुकार नहीं सुनता? क्यों इन मांसाहारियों के आत्माओं में दया का प्रकाश कर निष्ठुरता, कठोरता, स्वार्थपन और मूर्खता आदि दोषों को दूर नहीं करता, जिससे ये बुरे कार्यों से बचें।’’
इस पुस्तक का एक-एक वाक्य धर्म, न्याय, ज्ञान-विज्ञान से भरा हुआ है। इस सन्दर्भ में ऋषि दयानन्द ने मनुष्य को मर्यादा के पालन का आग्रह करके उसके पालन से होने वाले लाभ की ओर संकेत किया है। वे कहते हैं ‘जब पशु समाप्त हो जायेंगे तब मांसाहारियो तुम मनुष्य का मांस छोड़ोगे या नहीं?’
आज समाज की ओर ध्यान देते हैं तो हमें पता लगता है कि हमने पशु और मनुष्य के अन्तर को मिटा दिया है। हम जो क्रूरता व निर्दयता का व्यवहार पशुओं के साथ करते हैं वह व्यवहार अब हमारा स्वभाव बन गया है, हम उसे मनुष्य के साथ करने में संकोच नहीं करते। जो व्यक्ति धार्मिक नहीं होता वह मर्यादा के पालन में विश्वास नहीं करता, क्योंकि मर्यादाओं के पालन में धैर्य और दया का बड़ा स्थान है। अधार्मिक व्यक्ति जब धर्म से रहित होने के कारण धन-सम्पत्ति के प्राप्त करने में उतावला हो जाता है, धन को बहुत शीघ्र और बड़ी मात्रा में प्राप्त करना चाहता है फिर नियम-अनियम, न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित का कोई अर्थ उसके लिए नहीं रह जाता। वह मनुष्य, पशु, पक्षी, वनस्पति में भी भेद नहीं करता।
समाज आज इस काम और अर्थ की प्राप्ति के लिए इस प्रकार लगा है कि वह कितना विनाशकारी मार्ग है इसको हमारे राजनीतिज्ञ, समाज सेवक, बुद्धिजीवी नहीं सोच पा रहे हैं। गत अंकों में यह लिखा था कि बालकों के प्रति होने वाले अपराधों के नियन्त्रण के लिए बनाये जाने वाले कानून को किस प्रकार बाल-अपराधों को बढ़ावा देने वाला बनाया जा रहा है। इस पर गम्भीरता से विचार करने की और उसमें सुधार करने की आवश्यकता है।
इस कानून का पहला दोष यह है कि वह बालकत्व की आयु सीमा १८ वर्ष से घटाकर १२ वर्ष करने को मान्यता देता है। इससे बारह वर्ष से बड़े बालक के साथ होने वाले यौन-अपराध बाल-अपराध की श्रेणी से बाहर चले जाते हैं। इससे १२ से १८ वर्ष की आयु के बीच में होने वाला बाल-विवाह का अपराध भी अपराध कोटि में नहीं रह जाता। यह सब चोर दरवाजे से इसलिए किया जा रहा है क्योंकि इस्लाम में तेरह वर्ष की आयु में रजस्राव के साथ लडक़ी को विवाह योग्य मान लिया जाता है। जहां कानून से इस वृत्ति में सुधार का प्रयास होना चाहिए था इसके विपरीत सरकार बाल-विवाह को ही इस कानून से वैध करने जा रही है। साथ ही यौनाचार की अन्तिम क्रिया-क्रिया निर्वृति=पेनीट्रेटिंग सेक्स को ही यह कानून अपराध मानने की बात करता है, जबकि बालकों के साथ अन्य अनेकों प्रकार के यौन-अपराध हो रहे हैं। यह कानून पीडि़त बालक के स्थान पर पीड़ा देने वाले की रक्षा करता है, पीडि़त को नहीं बचाता।
आज भारत में सबसे पीडि़त और शोषित वर्ग बालकों का है। सम्पन्न व समर्थ माता-पिता उनको बड़ा आदमी बनाने के चक्कर में बचपन से दूर करते हैं तो गरीब आदमी रोटी के नाम पर उनको बचपन से दूर कर देता है। आज देश में बच्चों के साथ जो हो रहा है वह पशुओं से भी बदतर है। यह समाज बच्चों के साथ मुख्य रूप से दो प्रकार के शोषण करता है, एक वह बच्चों के श्रम से पैसा कमाता है और दूसरा बालकों के माध्यम से यौनापराधों को करता कराता है। बच्चों के साथ होने वाले अपराधों को समाज-शास्त्रियों ने चार भागों में बांटा है- १. बच्चों के साथ बलात्कार किया जाना। २. उनका अपहरण किया जाना। ३. उनको खरीदा और बेचा जाना। ४. भ्रूण-हत्या के रूप में उत्पन्न होने से पहले ही मार दिया जाना। विशेष रूप से लड़कियों के साथ ऐसा होता है।
बच्चों के साथ यौन-अपराधों के बढऩे का विशेष कारण वैश्वीकरण है। पूरे विश्व में अपराध करने वाले और उनके सहयोगियों के बीच सम्बन्ध बन गये हैं जो बच्चों को माल की तरह देश के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचा देते हैं और अपराध में भागीदार बनते हैं। इस कार्य को उन्होंने नाम दिया है ‘सेक्स टूरिज्म’ अर्थात् इसमें जो लोग भ्रमण पर निकलते हैं उनका उद्देश्य प्राकृतिक दृश्य देखना, नगर किले देखना न होकर यौनाचार के लिए यात्रा करना होता है। भारत में इसका केन्द्र गोवा है, जहां बड़े और संगठित स्तर पर यह काम होता है। यह ‘बाल संरक्षण कानून’ बालक नहीं अपितु इन अपराधियों की सुरक्षा करता है, अत: यह कानून अनुचित है। इस कानून में बालक की आयु १८ वर्ष ही होनी अपेक्षित है।
इसके अतिरिक्त बच्चों से जो कार्य लिये जाते हैं उनको भी बाल-अपराधों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। समय-समय पर समाचार पत्रों में इस प्रकार के समाचार छपते रहते हैं। इस देश को हम धार्मिक और सांस्कृतिक परम्पराओं वाला देश कहते हैं, इसमें बच्चों के अंग भंग करके उनसे भीख मंगवाने का कार्य एक व्यवसाय का रूप ले चुका है, इसका बड़ा केन्द्र पुलिस और छानबीन करने वालों की दृष्टि में कानपुर है। बच्चों से जेब काटने का कार्य भी कराया जाता है, इसके प्रशिक्षण केन्द्र के रूप में गाजियाबाद का नाम प्रसिद्ध है। प्रतिबन्धित वस्तुयें शराब, नशे की दवाइयाँ, तस्करी का सामान इधर से उधर करने के लिए छोटे-छोटे शहरों से लेकर बड़े शहरों तक बच्चों को उपयोग में लाया जाता है। इस प्रकार के कार्यों के लिए बच्चों को प्रशिक्षित करने का सबसे बड़ा केन्द्र मुम्बई है। बच्चों को लेकर यौन विकृतियों के चित्रों (पोर्नोग्राफी) का व्यापार विश्व में बड़े पैमाने पर होता है। इस व्यापार के माध्यम से बच्चों का शोषण और उनके जीवन की बर्बादी संगठित स्तर पर की जाती है। इस कानून में आयु की सीमा घटने से १२ से १८ वर्ष के बच्चों को इन अपराधियों से बचाना सम्भव नहीं है।
इसके अतिरिक्त शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों के द्वारा, घर में संरक्षकों के द्वारा एवं धार्मिक संस्थाओं में चोलाधारण किये बाबाओं द्वारा भी बच्चों के साथ यौनापराध होते हैं। इसलिए कानून द्वारा केवल पेनिट्रेटिंग सेक्स को अपराध मानने मात्र से बच्चों को शोषण और हिंसा से बचाना संभव नहीं है। विशेष रूप से बालिकाओं के साथ घर की चार दीवारी में होने वाले यौन शोषण और शारीरिक हिंसा से बचाने वालो कोई कारगर कानून हमारे पास नहीं है।
यौन-शोषण के लिए एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के साथ किस प्रकार का व्यवहार करता है उसके समाचार मनुष्य को भयभीत करने वाले हैं। बहुत वर्षों से किसानों में इस प्रकार की प्रवृत्ति देखने में आती थी कि वे अपने पशुओं को अधिक दूध के लिए आक्सिटोसिन का इञ्जेक्शन लगाते थे और आज भी धड़ल्ले से इसका प्रयोग हो रहा है। इस इञ्जेक्शन से पशु पर क्या बीतती है यह सोचना तो बहुत दूर की बात है वे यह भी नहीं सोचते कि इस इञ्जेक्शन के बाद निकला दूध क्या दूध के गुणों वाला रह जाता है? वह कितना हानिकर हो जाता है?
हमारी जल्दी धनवान् बनने की प्रवृत्ति ने इस इञ्जेक्शन का दायरा बढ़ा दिया। पहले फल आदि खाद्य-पदार्थ विष-नाशकों के छिडक़ाव और खाद से प्रदूषित होते थे, अब उनके साथ-साथ इञ्जेक्शन से और अधिक जहरीले होने लगे हैं। अब कद्दू, लौकी, बैंगन जैसी सब्जियाँ एक रात में इञ्जेक्शन लगाकर बड़ी कर दी जाती हैं, वे सारी एक जैसी, बड़ी सुन्दर दिखने वाली बाजार में बिकने आती हैं और मनुष्य इनको खाकर सात्त्विक जीवन का अभ्यासी बनना चाहता है। मनुष्य जब अपराध करने लगता है फिर उसे कहां रुकना चाहिए इसकी सीमा नहीं रहती। धर्म मनुष्य को अपराध के पहले कदम पर रोकता है, जबकि अधर्म अपराध को ऊंचे-बड़े स्तर पर करने के लिए प्रेरित करता है।
यह आक्सीटोसिन का इञ्जेक्शन पहले जानवरों में लगने लगा फिर सब्जी, फल, खरबूज, तरबूज की बारी आई और अब मनुष्य की बारी आ गई। आज बालक-बालिकाओं के यौन अपराधों में आक्सिटोसिन एक महत्त्वपूर्ण कारक बन गया है। इस इञ्जेक्शन का उपयोग आठ साल की बच्ची पर किया जाता है और छ:-सात माह के भीतर वह बच्ची सोलह साल की दीखने लगती है। जिस इञ्जेक्शन का पहले अधिक दूध के लालच में दूध वाले गाय-भैंसों के लिए उपयोग करते थे उसका उपयोग आज मनुष्यों पर होने लगा है। आक्सिटोसिन के प्रयोग से शरीर बढऩे लगता है, एक आठ साल की बच्ची कुछ ही माह में सोलह साल की नवयुवति दिखाई देने लगती है।
इस कार्य का एक बड़ा बाजार बन गया है, यह राजस्थान व उत्तर प्रदेश के धौलपुर, अलवर, आगरा, मेरठ, फिरोजपुर आदि जिलों में बड़े पैमाने पर हो रहा है। पुलिस ने छापे में अलवर के एक गांव में बड़ी संख्या में छोटी लड़कियों को देखा जिनको बहुत अच्छी देखरेख में पाला जा रहा था, जिनका उद्देश्य माल तैयार हो जाने पर देश और देश के बाहर की मंडियों में भेज दिया जाना है।
इन बच्चियों का शरीर ही नहीं इनका स्वभाव, इनकी यौन इच्छाएं भी असामान्य रूप से बढ़ जाती हैं। यह काम इन प्रदेशों में ग्राम-ग्राम में खेती की तरह किया जाता है, यही इनका व्यवसाय है। ये लोग न खेती करते हैं, न पशुपालन करते हैं। इन गावों में मेडिकल स्टोर पर आक्सिटोसिन इञ्जेक्शन की बिक्री चांैकाने वाली है। इतनी कम कीमत में इंसान का व्यापार करना इन दवाओं ने आसान कर दिया है।
प्रश्न उठता है क्या यह बालकों के साथ अत्याचार नहीं है? क्या यह कानून बालकों को इससे मुक्त करने में समर्थ है? क्या यह कानून इन अपराधों को करने वालों को दण्डित करने में सक्षम है? इस कानून से बाल-संरक्षण की बात करना बेमानी है।
बालक राष्ट्र की पूंजी है। भगवान् का अवतार है। यह देश कृष्ण की बाल-लीलाओं का दीवाना है। परन्तु यह देश बालकों की जीवन-लीला को लील रहा है। बालक बचेगा तो ही देश बचेगा, बालक अपराधी, अशिक्षित, कुसंस्कारी, रोगी, दुर्बल होगा तो सभ्य संस्कारी राष्ट्र की कामना मृगतृष्णा है, क्योंकि-
छिन्ने मूले नैव पत्रं न पुष्पम्।
- धर्मवीर
परोपकारी (जून प्रथम २०११)