विषय : पाखण्ड - अन्धविश्वास
शीर्षक : मूर्ति पूजा और अवतारवाद की निस्सारता
लेखक : सत्येन्द्र सिंह आर्य

               भारत में मूर्तिपूजा और अवतारवाद के सिद्धान्त का विस्तार हो रहा है। नित नये गुरु, अवतार और भगवान् पैदा हो रहे हैं। गुरुडम का काम पहले तो मुख्य रूप में पुरुष ही करते थे परन्तु अब तो बहुत-सी ''गुरु माँ" और उनकी सहायक (डिप्टी) गुरु माँ पैदा हो गयी हैं जिनके दरबार लगते हैं, बड़े-बड़े आलीशान उनके आश्रम (पाँच सितारा होटलों की सुविधा वाले) हैं, धन और बहुमूल्य धातुओं का वहाँ पुष्कल चढ़ावा चढ़ता है और प्रत्येक ऐसे गुरु, गुरु माँ या उप गुरु माँ के लाखों भक्त और अनुयायी हैं। भारतीय संस्कृति के आधार-वेद, दर्शन, एकादश उपनिषद्, मनुस्मृति आदि की सुशिक्षाओं से इन गुरुओं का कुछ लेना-देना नहीं है। अपने-अपने भक्तों को अपने चंगुल में फँसाये रखने के लिए अपनी-अपनी शिक्षाएँ एवं पुस्तकें तथा गुरुमंत्र बनाये हुए हैं। अधिकांश गुरुओं/बापुओं पर ठगी, छल कपट के आरोप हैं तथा कई पर यौन शोषण और बलात्कार के आरोप हैं। आसाराम बापू तो गुरुमंत्र देते-देते कानून की पकड़ में आ गए। अपनी गिरफ्तारी पर आसाराम बापू ढि़ठाई से कहते हैं- ''नरेन्द्र मोदी की सत्ता बच न सकेगी।" अपने चेलों के सामने होती अपनी दुर्गति पर झेंप मिटाने के लिए यह वाक्य तो ऐसे कहा जैसे वह सर्वशक्तिमान् और सर्वान्तर्यामी है और उसके गिरफ्तार होते ही प्रलय आ जायेगी। अपनी दुकानदारी को चलाये रखने के ये सब लटके-झटके हैं। छल-कपट और फरेब के बल पर ये गुरु तो करोड़ों-अरबों रुपये कमा लेते हैं और चेले गरीबी में जीते रहते हैं। एक गुरु तो ऐसा है जो विश्व में जागृति (शान्ति) फैलाने के मिशन का नाम लेकर धन बटोर रहा है परन्तु कुछ ही वर्षों पहले दुराचार के मामले में फँसकर वह मेरठ नगर से मुँह छिपाकर भागा था। लज्जा या शर्म तो ऐसे स्वार्थी लोगों को होती नहीं है।
               अवतारवाद की अवधारणा को गीता के इन दो श्लोकों से बल मिलता है-
               यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। 
               अभ्युथानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
               परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
               धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।

               अर्थात् (१) साधुओं की रक्षा के लिए (२) दुष्टों के नाश के लिए और (३) धर्म की स्थापना के लिए मैं युग-युग में जन्म लेता हूँ। प्रा. राजेन्द्र जी जिज्ञासु ने अपनी पुस्तक 'मूल की भूल' के आरम्भ में इसकी बड़ी सुन्दर विवेचना की है। अवतारवाद की बात वेद-विरुद्ध है। क्या ईश्वर कहीं ऊँचाई पर बैठा है जो वहाँ से (नीचे उतरेगा) अवतरित होगा। वह तो सर्वत्र व्यापक है, अनादि और अजर अमर है। प्रसिद्ध आर्य दार्शनिक, चिन्तक और विचारक श्री पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय ने अपनी पुस्तक WORSHIP में गीता के उपर्युक्त श्लोकों में बताये गये कामों पर प्रश्न उठाये हैं कि क्या ईश्वर अवतार लिए बिना ये तीनों कार्य नहीं करता? उपाध्याय जी के द्वारा उठाया गया यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। वेदान्त दर्शन के सूत्र- ''जन्माद्यस्य यत:" का आशय यही है कि ईश्वर वह है जो सृजन करता है, पालन करता है और संहार करता है। ये कार्य परमेश्वर प्रतिक्षण करता है। सृष्टि में सर्वत्र सृजन, पोषण व संहार प्रतिक्षण होता रहता है। अवतार कहलाने वाला कोई भी व्यक्ति ये कार्य नहीं कर सका और न ही कर सकेगा।
               अवतारवाद की अवधारणा से मूर्ति पूजा का कुविचार जुड़ा हुआ है। मूर्तिपूजा जैनियों से आरम्भ हुई है। वे ऋषभदेव से लेकर महावीर पर्यन्त अपने तीर्थङ्करों की बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ बनाकर पूजा करने लगे अर्थात् पाषाणादि मूर्तिपूजा की जड़ जैनियों से प्रचलित हुई। इससे परमेश्वर का मानना न्यून होने लगा। वाममार्गियों एवं शैवों के अनुयायी भी जैन मंदिरों में जाने लगे और रोकने से भी नहीं रुके। तब पुराणियों ने विचार किया कि कोई उपाय करना चाहिए नहीं तो अपने सब चेले जैनी हो जायेंगे। सोच विचार कर इन पोपों, मतपंथियों ने यही निश्चय किया कि जैनियों की भाँति अपने भी अवतार, मंदिर, मूर्ति और कथा के पुस्तक बनाये जाएँ। इस प्रकार इन लोगों ने जैनियों के चौबीस तीर्थङ्करों के सदृश चौबीस अवतार, मंदिर और मूर्तियाँ बनाईं। जैसे जैनियों के आदि और उत्तर पुराणादि हैं, वैसे अठारह पुराण बनाने लगे। तब से आरम्भ हुआ यह मूर्तिपूजा का कुचक्र थमने का नाम नहीं ले रहा। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के जीवन काल में उनकी वक्तृता सुनकर और मूर्तिपूजा की निरर्थकता को समझकर बहुत से मूर्ति पूजकों ने मूर्तियाँ जल में प्रवाहित कर दी थीं। जिन लोगों की आजीविका ही मूर्तियों के सम्मुख चढऩे वाले चढ़ावे से चलती थी उन्होंने यह कहकर सन्तोष कर लिया कि हम तो मूर्तिपूजा से अपने स्वार्थ (रोजी-रोटी) के कारण जुड़े हैं, हमारी इसमें कोई आस्था नहीं है और न ही इसका विधान वेदों में है। परन्तु आज स्थिति यह है कि जिनकी आजीविका मूर्तियों, कब्रों, दरगाहों से चलती है, वे तो लाखों की संख्या में होंगे परन्तु वे मूर्तिपूजक कि जिनकी रोजी रोटी का मूर्तिपूजा से कुछ भी लेना-देना नहीं है पर फिर भी वे मूर्तिपूजा, कब्र-पूजा के कट्टर समर्थक हैं, उनकी संख्या करोड़ों में है। वेद की विचारधारा से अपरिचय के कारण वे इस वेद-विरुद्ध बुराई में आकण्ठ डूबे हुए हैं। विचारशील चिन्तकों, मनीषियों ने भारत के विगत एक हजार वर्ष की दुर्गति और अधोपतन के जो कारण गिनाये हैं, उनमें 'मूर्ति पूजा' प्रमुख है। सोमनाथ के, वाराणसी के, अयोध्या के या किसी और मंदिर के कौन से देव या महादेव की मूर्ति ने मुगलों और मुसलमानों के आक्रमण से अपने भक्तों-अनुयाइयों की रक्षा की है? मूर्तिपूजा के भुलावे में पड़कर इतना लुट-पिटकर और अपमानित होकर भी यह मूर्तिपूजकों की भीड़ वैष्णोदेवी की मूर्ति की पूजा के लिए जम्मू-कश्मीर की ओर को दौड़ती है और यह नहीं सोचती कि यह मूर्ति आतंकवादियों और अलगाववादियों से कश्मीरी पण्डितों की रक्षा नहीं कर पायी, वे तो उजड़कर शरणार्थी बनाकर दिल्ली में पड़े हुए हैं। स्वयं इन भक्तों की रक्षा के लिए भी भारतीय सेना को साथ-साथ रहना पड़ता है, वरना वे आतंकवादी इन भक्तों को भी मार देंगे और वैष्णो देवी की मूर्ति कुछ भी मदद नहीं करेगी।
               अवतारवाद और मूर्तिपूजा के व्यामोह में पड़े हुए ऐसे ही लोगों के लिए ऋषिवर ने कहा है-
               '''अकायम् [यजु. ४०/८] इत्यादि विशेषणों से परमेश्वर को जन्म-मरण और शरीरधारणरहित वेदों में कहा है, तथा युक्ति से भी परमेश्वर का अवतार कभी नहीं हो सकता। क्योंकि जो आकाशवत् सर्वत्र व्यापक, अनन्त और सुख, दु:ख, दृश्यादि गुण रहित है, वह एक छोटे से वीय्र्य, गर्भाशय और शरीर में क्यों कर आ सकता है? आता-जाता वह है जो एक देशीय हो। और जो अचल, अदृश्य, जिसके बिना एक परमाणु भी खाली नहीं है, उसका अवतार कहना जानो बन्ध्या के पुत्र का विवाह कर उसके पौत्र के दर्शन करने की बात कहना है।"
पौराणिक लोग प्राय: पुराण का वाक्य उद्धृत करके कहते हैं-
               न काष्ठे विद्यते देवो, न पाषाणे, न मृण्मये।
               भावे हि विद्यते देवस्तस्माद् भावो हि कारणम्।।
                              गरुड़ पुराण प्रेतखण्ड अ. ३८, श्लोक १३

               देव न काष्ठ, न पाषाण, न मृतिका से बनाये पदार्थों में है किन्तु परमेश्वर तो भाव में विद्यमान है। जहाँ भाव करें, वहाँ ही परमेश्वर सिद्ध होता है। संस्कृत के ऐसे ही किसी श्लोक का मूर्तिपूजकों ने हिन्दी रूपान्तर किया हुआ है- ''मानो तो देव, नहीं तो पत्थर" ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि पत्थर उनके मानने या चाहने से देव की भूमिका का निर्वाह कभी नहीं कर सकेगा। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने इस विषय में बहुत ही तर्क-संगत और बुद्धिगम्य बात कही है-
               ''जब परमेश्वर सर्वव्यापक है तो किसी एक वस्तु में परमेश्वर की भावना करना, अन्यत्र न करना- यह ऐसी बात है कि जैसी चक्रवर्ती राजा को सब राज्य की सत्ता से छुड़ाके एक छोटी-सी झोपड़ी का स्वामी मानना। देखो! यह कितना बड़ा अपमान है? वैसा तुम परमेश्वर का भी अपमान करते हो। जब व्यापक मानते हो तो वाटिका में से पुष्प-पत्र तोड़ के क्यों चढ़ाते? चन्दन घिस के क्यों लगाते? घण्टा, घडिय़ाल, झाँज, पखावजों को लकड़ी से कूटना-पीटना क्यों करते हो? तुम्हारे हाथों में है, क्यों जोड़ते हो? शिर में है क्यों शिर नमाते? अन्न, जलादि में है, क्यों नैवेद्य धरते? जल में है, क्यों  स्नान कराते? क्योंकि परमात्मा उन सब पदार्थों में व्यापक है। और तुम व्यापक की पूजा करते हो या व्याप्य की? जो व्यापक की करते हो तो पाषाण, लकड़ी आदि पर चन्दन, पुष्पादि क्यों चढ़ाते हो? और जो व्याप्त की करते हो तो हम परमेश्वर की पूजा करते हैं- ऐसा झूठ क्यों बोलते हो? हम पाषाणादि के पुजारी हैं, ऐसा सत्य क्यों नहीं बोलते?"
               ''अब कहिए 'भाव' सच्चा है वा झूठा? जो कहो सच्चा है, तो तुम्हारे भाव के आधीन होकर परमेश्वर बद्ध हो जायेगा। और तुम मृत्तिका में सुवर्ण-रजतादि, पाषाण में हीरा-पन्नादि, समुद्रफेन में मोती, जल में घृत-दुग्ध-दधि आदि और धूलि में मैदा-शक्कर आदि की भावना करके उनको वैसे क्यों नहीं बनाते हो? तुम लोग सुख की भावना सदैव करते हो, वह क्यों नहीं प्राप्त होता? अन्धा पुरुष नेत्र की भावना करके क्यों नहीं देखता? मरने की भावना नहीं करते, क्यों मर जाते हो? इसलिए तुम्हारी भावना सच्ची नहीं। क्योंकि जैसे में वैसी करने का नाम 'भावना' कहते हैं। जैसे अग्नि में अग्नि , जल में जल जानना, और जल में अग्नि , अग्नि में जल समझना 'अभावना' है। क्योंकि जैसे को वैसा जानना ज्ञान और अन्यथा जानना अज्ञान है। इसलिए तुम अभावना को भावना और भावना को अभावना कहते हो।"
               केनोपनिषद में कहा है-
               यच्चक्षुषा न पश्यति, येन चक्षूँषि पश्यन्ति।
               तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि, नेदं यदिदमुपासते।।
                                             केनो., खण्ड १,मं. ६

               अर्थात् जो आँख से नहीं दीख पड़ता और जिससे सब आँखें देखती हैं, उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर। और जो उससे भिन्न सूर्य, विद्युत् और अग्रि आदि जड़ पदार्थ हैं, उनकी उपासना मत कर। इसलिए पाषाणादि मूर्तिपूजा अत्यन्त निषिद्ध है।
ब्रह्मा से लेकर जैमिनि महर्षि पर्यन्त का मत है कि वेद विरुद्ध को न मानना किन्तु वेदानुकूल ही का आचरण करना धर्म है। क्योंकि वेद सत्य अर्थ का प्रतिपादक है, इससे विरुद्ध जितने तन्त्र और पुराण हैं, वे वेद विरुद्ध होने से झूठे हैं कि जो वेद से विरुद्ध चलते हैं। उनमें कही हुई मूर्तिपूजा भी अधर्म रूप है। मनुष्यों का ज्ञान जड़ की पूजा से नहीं बढ़ सकता, किन्तु जो कुछ ज्ञान है वह भी नष्ट हो जाता है।
जो लोग यह कहते हैं कि साकार (मूर्ति आदि) में मन स्थिर हो जाता है, निराकार में स्थिर नहीं हो पाता, 
               वे भ्रम में हैं। साकार में मन स्थिर कभी नहीं हो पाता। क्योंकि उसको मन झट ग्रहण करके उसी के एक-एक अवयव में घूमता और दूसरे में दौड़ जाता है। और निराकार अनन्त परमात्मा के ग्रहण करने में यावत्सामथ्र्य मन अत्यन्त दौड़ता है तो भी अन्त नहीं पाता। निरवयव होने से चञ्चल भी नहीं रहता किन्तु उसी के गुण-कर्म-स्वभाव का विचार करता-करता आनन्द में मग्र होकर स्थिर हो जाता है। और जो साकार में स्थिर होता तो सब जगत् का मन स्थिर हो जाता, क्योंकि जगत् में मनुष्य, स्त्री, पुत्र, धन, मित्र आदि साकार में फँसा रहता है परन्तु किसी का मन स्थिर नहीं होता जब तक निराकार में न लगावे, क्योंकि निरवयव होने से उसमें मन स्थिर हो जाता है।
               मूर्तिपूजा से बहुत-सी हानियाँ हैं। उसमें करोड़ों रुपये मंदिरों में व्यय करके दरिद्र हो जाते हैं और उसमें प्रमाद बढ़ता है। स्त्री-पुरुषों का मंदिरों में मेला होने से व्यभिचार, लड़ाई-बखेड़ा और रोगादि उत्पन्न होते हैं। मूर्तिपूजक उसी को धर्म, अर्थ, काम और मुक्ति का साधन मानकर पुरुषार्थ रहित होकर मनुष्य जन्म व्यर्थ गवाँता है। नाना प्रकार की विरुद्ध स्वरूप नाम-चरित्रयुक्त मूर्तियों के पुजारियों का ऐक्यमत नष्ट होके विरुद्धमत में चलकर आपस में फूट बढ़ाकर देश का नाश करते हैं। मूर्तियों के भरोसे ही शत्रु का पराजय और अपना विजय मान बैठे रहते हैं। इससे उनका पराजय होता है और राज्य, स्वातंत्र्य और धन का सुख उनके शत्रुओं को प्राप्त होता है। मूर्तिपूजा के व्यामोह में फँसा व्यक्ति मंदिर-मंदिर, देश-देशान्तर में घूमते-घूमते दु:ख पाते, धर्म, संसार और परमार्थ का काम नष्ट करते, चोर आदि से पीडि़त होते और ठगों द्वारा ठगे जाते हैं। दुष्ट पुजारियों को धन देते हैं, वे उस धन को वेश्या, परस्त्रीगमन, मद्य, मांसाहार, लड़ाई-बखेड़ों में व्यय करते हैं, जिससे दाता का सुख का मूल नष्ट होकर दु:ख होता है।
               एक बात और विचारणीय है। जब कोई किसी को कहे कि हम तेरे बैठने के आसन वा नाम पर पत्थर धरें तो जैसे वह उस पर क्रोधित होकर मारता या उसको गाली देता है वैसे ही जो परमात्मा के उपासना के स्थान हृदय और नाम पर पाषादि मूर्तियाँ धरते हैं, उन दुष्ट-बुद्धिवालों का सत्यानाश परमेश्वर क्यों न करे? जड़ पूजा में जिनका मन रमता है, वे माता-पिता आदि मानवीयों का अपमान कर पाषाणादि मूर्तियों का मान करके कृतघ्न हो जाते हैं। जब उन मूर्तियों को कोई तोड़ डालता है या उन्हें चोर ले जाता है तब हा-हाकार करके रोते हैं। पुजारी परस्त्रियों के संग और पूजारिन् परपुरुषों के संग से दूषित होकर स्त्री-पुरुष के प्रेम के आनन्द को हाथ से खो बैठते हैं। जड़ का ध्यान करने वाले का आत्मा भी जड़ बुद्धि हो जाता है क्योंकि ध्येय का जड़त्व अन्त:करण द्वारा आत्मा में अवश्य आता है।
               परमेश्वर ने सुगन्धियुक्त पुष्पादि पदार्थ वायु, जल के दुर्गन्ध निवारण और आरोग्यता के लिए बनाये हैं, उनको पुजारी जी तोड़-ताड़कर न जाने उन पुष्पों की कितने दिन तक सुगन्धि आकाश में चढ़कर वायु, जल की शुद्धि करती और पूर्ण सुगन्ध के समय तक उसका सुगन्ध होता है, उसका नाश मध्य में ही कर देते हैं। पुष्पादि कीचड़ के साथ मिल-सड़कर उलटा दुर्गन्ध उत्पन्न करते हैं। क्या परमात्मा ने पत्थर पर चढ़ाने के लिए पुष्पादि सुगन्धि-युक्त पदार्थ रचे हैं? पत्थर पर चढ़े हुए पुष्प, चन्दन और अक्षत आदि सबका जल और मृत्तिका के संयोग होने से मोरी या कुण्ड में आकर सड़ के इतना उससे दुर्गन्ध आकाश में चढ़ता है कि जितना मनुष्य के मल का। और सहस्रों जीव उसमें पड़ते, उसी में मरते और सड़ते हैं। ऐसे-ऐसे अनेक दोष मूर्ति पूजा के करने में आते हैं। मूर्ति पूजा और अवतारवाद दोनों ही वेद-विरुद्ध बातें हैं, अत: त्यक्तव्य है।                 (परोपकारी - मार्च प्रथम, २०११)