सम्पूर्ण सृष्टि महानों से भरी पड़ी है। जिधर देखिये सब कुछ लम्बी सूची है। पञ्चभूत यानी पृथिवी, जल, अग्रि, वायु, आकाश महान् क्यों हैं? क्योंकि ये ही सृष्टि के मूल उपादान हैं। इनके बिना सृष्टि नहीं बन सकती, इनके द्वारा ही सृष्टि बनती है, अत: ये महान् हैं। इस महत्ता के कारण ये भूत ही नहीं? महाभूत कहे जाते हैं। जीव महान् क्यों हैं? क्योंकि वे पञ्चभूतों से बनी सृष्टि के वन, पर्वत, औषधि, अन्न आदि पदार्थों से नाना प्रकार की सुख सुविधाओं को जुटाने में समर्थ होते हैं। सृष्टि के पदार्थों पर शासन जमाने का अनुभव रखते हैं।
ईश्वर महान् है, पर वह महान् क्यों है? यह न पूछिये! क्योंकि ईश्वर के महान् होने के अनेक कारण हैं। पञ्चभूतों से सृष्टि प्रकट करने का, प्राकृतिक तत्त्वों को अन्न- औषधि, वन-पर्वत आदि रूप प्रदान करने का सामथ्र्य ईश्वर में ही है, अन्य में नहीं। न स्वयं प्राकृतिक पदार्थ पञ्चतत्त्वों में यह सामथ्र्य है और न ही सृष्टि के पदार्थों से सुख-सुविधा जुटा लेने वाले जीवों में है। इस सम्पूर्ण सृष्टि का निमित्त ईश्वर ही है। वह ही सृष्टि को बनाता है। ईश्वर के बिना बनाये पञ्चमहाभूतों से यह सृष्टि बन ही नहीं सकती। जब ईश्वर बनाता है, तभी सृष्टि बनती है, प्रकट होती है। सृष्टि निर्माण के इस अद्भुत कार्य के कारण ईश्वर महान् है।
ईश्वर के महान् होने का दूसरा कारण है ज्ञान प्रदान। ज्ञानवान्, ज्ञानी कहे जाने वाले जीवों को यह सर्वज्ञ ईश्वर ही वेद रूपी ज्ञान प्रदान करता है। इस ईश्वरीय ज्ञान के आधार पर ही जीव सृष्टि के पदार्थों से अनेकानेक अन्वेषण व सुख-सुविधायें ग्रहण करते हैं, अत: ईश्वर महान् है।
ईश्वर के महान् होने का यह भी कारण है कि जीव कर्म तो करते हैं, पर उनके कर्मों का फल ईश्वर ही देता है। जीवों के कर्मों का यदि ईश्वर फल न दे, तो सर्वत्र अन्याय ही अन्याय होगा। दोषी को कोई दण्ड ही न मिले। सृष्टि में सधन-निर्धन, रोगी-निरोगी आदि जो भेद दीखते हैं, वे ईश्वर की कर्मफल प्रदान की व्यवस्था के कारण भी हैं, अत: ईश्वर महान् है।
ईश्वर के महान् होने का कारण यह भी है कि सम्पूर्ण सृष्टि के जड़-चेतन पदार्थों का वह ही लालन-पालन करने वाला है। सूर्य, चाँद आदि की गति के पीछे ईश्वर है। हमारे शरीरों की वृद्धि, शक्ति आदि का कारण ईश्वर है। कीट, पतंग आदि सभी उसी से ही लालित-पोषित हैं। सबका लालन-पालन करने वाला ईश्वर है, अत: ईश्वर महान् है।
ईश्वर के महान् होने का कारण यह भी है कि सम्पूर्ण सृष्टि के पुराने रूप को नये रूप में बदलने का कार्य ईश्वर ही करता है। यानी सृष्टि व प्रलय दोनों ईश्वर के हाथों में हैं। ४ अरब, ३२ करोड़ वर्ष पर्यन्त सृष्टि को चलायमान करना, ४ अरब, ३२ करोड़ वर्ष तक प्रलय में रखना ईश्वर का ही सामथ्र्य है। नये को पुराना, पुराने को नया करना, प्रलय के बाद सृष्टि, सृष्टि के बाद प्रलय इस चक्र को चलाने का सामथ्र्य ईश्वर में ही है, अत: ईश्वर महान् है।
एतादृश अन्य भी अनेकों ईश्वर के महान् कर्म हैं, जिन्हें न तो पञ्चमहाभूत कर सकते हैं और न जीव। ईश्वर इन दोनों से महान् है। ईश्वर महान् ही नहीं, इन महानों से महान् है। यह ईश्वर पञ्चभूतों से महान् है, अत: वेद में कहा-
महान्तो मह्ना विभ्वो विभूतयो
दूरेदृशो ये दिव्या इव स्तृभि:।
ऋ. १/१६६/११
अर्थात् मह्ना= महान् सामथ्र्य के कारण ईश्वर के, विभ्व:= सामथ्र्य, महान्त:= महान् हैं, विभूतय:= नाना ऐश्वर्ययुक्त हैं, ये= जो ईश्वर के सामथ्र्य हैं, वे, दिव्या इव स्तृभि:= दिव्य सूर्य, चन्द्र, नक्षत्रगण आदि की भाँति, दूरेदृश:= दूर से अर्थात् अनुभव से दीखने वाले हैं।
मन्त्र का भाव है कि ईश्वर पञ्चभूतों से महान् है, ईश्वर का सामथ्र्य सबसे बड़ा, महान्, विस्तृत है।
ईश्वर जीव से भी महान् है। ईश्वर के समकक्ष कोई महान् नहीं। उपनिषद् कहती है-
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य
जन्तोर्निहितो गुहायाम्।
तमक्रतु: पश्यति वीतशोको धातु: प्रसादान्महिमानमात्मन:।।
कठो. २/२०
अर्थात् जीवात्मा अणु है, सूक्ष्म है, परमात्मा उस अणु से भी अणु है, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है। वह बड़े से भी बड़ा, महान् से भी महान् है। वह जीव रूपी जन्तु की हृदय गुहा में छिपा बैठा है, उस महान् परमात्म देव को कर्मों के जाल में निबद्ध जीव नहीं देख सकता। उस महान् परमात्मा को तो निष्काम कर्म करने वाला जीव ही देखता है और वह जीव देखता है, जो शोक रहित है। अन्यच्च उस परमात्मा की महिमा को परमात्मा की प्रसादात्= कृपा होने पर ही जीवात्मा देख पाता है।
ऐसे महानों के महान् महनीय ईश्वर के अपनी महनीयता के कारण अनेक नाम भुवि विश्रुत हैं। देश परिच्छेद शून्यता के कारण वह विष्णु है। ब्रह्मा परिवृढ: श्रुतत:, निरु. १/३/९, बृंहति वर्धयति स: ब्रह्मा, अर्थात् ज्ञान का स्वामी एवं सम्पूर्ण जगत् का स्रष्टा व बढ़ाने वाला होने के कारण वह ब्रह्मा है। विविधं नाम चराचरं जगद्राजयति प्रकाशयति स विराट्, अर्थात् वह विविध प्रकार से जगत् को उत्पन्न करता है, अत: वह विराट् है। सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म, तै.उ. २/१, अर्थात् नित्य, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक होने से वह ब्रह्म= महान् ईश्वर सत्य, ज्ञान एवं अनन्त नाम वाला है। इन्हीं अनेक नामों में एक नाम शिव भी है।
उस महान् ईश्वर का शिव नाम क्यों है? क्योंकि
शिवु कल्याणे-शेवयति कल्याणं करोति इति शिव:
अर्थात् सबका कल्याण करता है, अत: उस ईश्वर का नाम शिव है।
शीङ् स्वप्ने-शेते सर्वमस्मिन्निति स: शिव:,
उणा. १/१५३
अर्थात् प्रलयकाल में सम्पूर्ण जगत् उस ईश्वर में शयन करता है, अत: वह ईश्वर शिव है।
टुओश्वि गतिवृद्ध्यो:- श्वयति सर्वं जानाति सर्वं व्याप्नोति वा स: शिव:।
अर्थात् वह सर्वज्ञ एवं सर्वव्यापक है, अत: वह ईश्वर शिव कहाता है।
शिव शब्द की इन व्युत्पत्तियों से स्पष्ट है कि वह महान् शिव सर्वव्यापक सत्ता है। सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ में व्यापक है, प्रति पदार्थ की गति, प्रगति, उत्पत्ति, स्थिति आदि का कारण अनेकनामा शिव परमेश्वर ही है।
अनेकनामा इस ईश्वर के इन नामों में शिवनाम महन्नाम के रूप में लोक में जाना जाता है। भक्तगण इस महन्नाम का जप करते-करते थकते नहीं। भक्तों का कार्य अच्छा हो अथवा बुरा, दोनों ही अवस्था में उन्हें शिव! शिव! शिव! करते खूब देखा, सुना है।
एक हमारे काशी के वैद्य हैं, जिनका लक्सर वाराणसी में मधुसूदन औषधालय है। मैंने बहुधा देखा कि वे किसी भी व्यक्ति की नाड़ी देखते, हाथ धोते पुन: उसके बाद शिव! शिव! शिव! यह शब्दोच्चारित करते। इतना ही नहीं, किसी भी विषय की कोई चर्चा होती, उसकी समाप्ति पर भी उन्हें शिव! शिव! शिव! कहते हुए भी बहुत सुना। हमारे ये श्रद्धेय वैद्यराज जी जन्मना ब्राह्मण हैं, नाम के आगे मिश्र जुड़ता है। पूरा नाम है- वैद्यराज श्री राजेन्द्र जी मिश्र वैद्य। आप बड़े उदात्त पुरुष व सिद्धहस्त वैद्य हैं। आपके मुख से शिव! शिव! शिव! शब्दोच्चारण बड़ा भावभीना भी लगता है। ईश्वर का यह शिवनामोच्चार उसकी भक्ति नहीं है, पर उसके अस्तित्व का द्योतक अवश्य होता है। इस भक्ति को नकारा भी नहीं जा सकता है, क्योंकि शास्त्रों में ईश्वर के नाम जाप का निर्देश है।
शिव नामोच्चार के अतिरिक्त शिवभक्ति के और भी अनेक प्रकार हैं। कोई तो उसे साकार, देहधारी मानता है, निश्चित आकृति मानता है। आकृति रूप में शिव को मानने वाले कुछ भक्त तो उस आकृति से लिपटते हैं, कुछ भक्त पुष्प, चन्दन, माला आदि चढ़ाते हैं, नमस्कार, वन्दन आदि करते हैं।
प्रसंगत: एक प्रसंग स्मरण हो आया। बात पुरानी है, पर है अनोखी। श्रावणी पर्व के वेद प्रचार सप्ताह कार्यक्रम के मध्य १६-२२ अगस्त २००९ तक मण्डी हिमाचल प्रदेश में मेरा जाना हुआ। मण्डी स्थान ६, ७ हजार फुट ऊँचे पर्वत की तलहटी में बसा हुआ, स्थान है। कार्यक्रम के मध्य मण्डी स्थित अनेक सुरम्य पर्वतीय स्थलों को देखा। ९००-९०० फुट ऊँची पहाडिय़ों पर पौन घण्टे व एक घण्टे में मैंने और मेरी ब्रह्मचारिणियों ने चढ़ाई भी की।
इस भ्रमण क्रम में २० अगस्त २००९ को मध्याह्नोत्तर ४, ५ बजे के लगभग मण्डी के पहाड़ पर महिषासुर मंदिर भी देखा। मंदिरों को देखना मेरा अपना एक उद्देश्य होता है। उस पहाड़ी से उतर कर बाजार में होते हुए मण्डी के उस स्थान पर मैं पहुँची, जहाँ एक भूतनाथ मंदिर खड़ा था। उस मंदिर के बाहर एक बाबा एक टांग से खड़े होकर हाथ उठाये आशीर्वाद दे रहे थे, वे बोल नहीं रहे थे। मैंने भी बाबाजी को आशीर्वाद का उत्तर देते हुए कहा-
स्वस्ति अस्तु, शुभं शिवञ्च भवतु
ऐसा कहते हुए आगे मंदिर में बढ़ गई। अन्दर जाकर देखा, वहाँ एक शिव मंदिर है। जिसमें शिव आदि मूर्तियाँ रखी हुई हैं और सामने एक नान्दी बना हुआ है। उस नान्दी से अपने माता-पिता, पुत्र-पुत्री आदि स्वजनों की भाँति एक सम्भ्रान्त महिला लिपटी हुई खड़ी थी। उस महिला की उस भाव प्रवण स्थिति को देखकर उस महिला से मैंने कहा- अच्छा, ये ही भूतनाथ हैं, जिससे आप संश्लिष्ट होकर खड़ी हैं! मेरा इतना कहना था कि उस महिला ने बिना अल्प विराम, पूर्ण विराम के व्याख्यान प्रारम्भ किया कि इन भूतनाथ ने ही सभी को थाम रखा है, इनके ऊपर ही धरती टिकी है, आदि-आदि।
मैंने भारत में बहुत से शिव मंदिर देखे हैं। मण्डी का यह भूतनाथ मंदिर उन मंदिरों से बिलकुल ही पृथक् ढंग का है। नान्दी की आकृति तो और भी विचित्र थी। नान्दी के पीछे एक ग्वाला बना है, उस ग्वाले ने नान्दी की पूँछ पकड़ रखी है। नान्दी के आगे की ओर पैरों के मध्य एक सर्प का मुख बना हुआ है, जो नान्दी की सास्ना से छू रहा है। महिला ने इसी नान्दी के साथ अपना आश्लेष करके शिवभक्ति जताई हुई थी। यह भी शिवभक्ति का एक प्रकार है।
शिव के कुछ उपासक ऐसे हैं, जो शिव मंदिरों में जाकर शिवलिंग कही जाने वाली बटिया को पदार्थों का समर्पण करना ही शिवभक्ति समझते हैं। इस भक्ति में भक्तगण पीतल, तांबा, मिट्टी आदि की लुटिया में बिन्दु मात्र दुग्ध मिले जल का, गंगाजल का एवं लुटिया के ऊपर रखे हुये आक के पत्र, पुष्प एवं धतूरे के फलों का आश्रय लेते हैं।
काशी का विश्वनाथ मंदिर भारत का प्रसिद्ध मंदिर है। जहाँ काशी सहित विश्व के लोग विश्वनाथ मंदिर में आक, धतूरे के पत्र, पुष्पों का अभिषेक करते हैं। विश्वनाथ गली से जाते हुए विश्वनाथ मंदिर का जो प्रवेश द्वार है, वहाँ खड़े एक फटीचर व्यक्ति का शिवभक्ति का अपना ही प्रकार है। दण्ड के सहारे खड़े होकर नम: शिवाय, नम: शिवाय इन शब्द पदों की ध्वनि के साथ हाथ का कटोरा फैलाये याचना में संलग्न है, यह उसकी भक्ति है।
शिव की भक्ति, प्राप्ति व उपासना में आज आक के फूल इतने महत्त्वपूर्ण बन गये हैं कि उनके बगीचे लगाये जाते हैं। काशी में गंगा के किनारे सामने घाट स्थित एक गाँव है कलहियाँ। इस गाँव में एक बहुत सुन्दर, सुरम्य, रमणीय 'ज्ञान प्रवाह' नामक स्थान है। जहाँ वेद, वेदांग आदि विषयक अनेक गोष्ठियाँ आयोजित होती हैं। यागों की दर्शपौर्णमास आदि विधियाँ सम्पन्न होती हैं। ज्ञान प्रवाह में जाने का कई बार अवसर प्राप्त हुआ है। ज्ञान प्रवाह के आसपास की भूमि में आक के वृक्षों का बगीचा है। ये आक के वृक्ष शिवजी के अर्चन के लिये ही उगाये गये हैं। आक के ये फल, फूल व पत्र विश्वनाथ गली व दशाश्वमेध घाट आदि पुष्प मण्डियों में बिकते हैं, शिवलिंग पर चढ़ाये जाते हैं।
आक, धतूरे के पत्र, पुष्प, फल ही क्या? अन्य वनौषधियों के पत्र, पुष्पों का भी शिव की अर्चना में उपयोग लिया जाता है। पुष्प न मिले, तो प्रात:काल पुष्पों की चोरी भी होती है। प्रात:काल अनेक देवियों और सज्जनों को देखा है कि जो अन्य जिस किसी के घर के बाहर निकले कनेर, गुडहल, गेंदा, वेला आदि पुष्पों को दण्डे से मार-मार कर प्राय: तोड़ते रहते हैं। वे जन उन वृक्षों में पानी तो कभी नहीं देते, पर उन पर डंडा रोज फेरते हैं। शिवभक्ति के ये प्रकार उदाहरणदृक् हैं। बस आंख मूँद कर वर्ष, प्रतिवर्ष किये जा रहे हैं, विचार करने का किसी को समय ही नहीं।
सच मानिये! सर्वव्यापक महन्नाम शिव परमेश्वर की भक्ति, प्राप्ति के लिये किये गये एतादृश सभी प्रकार अनुचित, निरर्थक, मनघढ़न्त हैं, शास्त्रीय नहीं, ज्ञान सम्पन्नों के नहीं।
शिवरात्रि प्रतिवर्ष आती है और प्रतिवर्ष शिव की प्राप्ति के लिये इन्हीं आक, धतूरे आदि के चढ़ाने सदृश अनेक अशास्त्रीय कार्य किये जाते हैं। चढ़ावा चढ़ाते-चढ़ाते कई-कई जन्म व्यतीत हो रहे हैं, पर उपलब्धि कुछ भी नहीं। किसी को सत्य अन्वेषण की चिन्ता ही नहीं। सर्वतो महान् उस ईश्वरीय सत्ता की प्राप्ति इन आक, धतूरे आदि की चढ़ाई से नहीं होती। उसकी प्राप्ति होती है, चित्तवृत्ति के निरोध से, चित्त की परिशुद्धि से। चित्त जब तक निर्मल नहीं होता, चित्त में जब तक अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश विद्यमान रहते हैं, तब तक ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती, भक्ति का लाभ नहीं मिलता। चित्त की परिशुद्धि, कैसे होती है? इसका उपाय बताते हुए महर्षि पतञ्जलि कहते हैं-
योगाङ्गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्याते:।
योग. २/२८
अर्थात् योग के अंगों के अनुष्ठान के द्वारा अविद्या आदि अशुद्धि= दोषों का नाश होता है, उस अशुद्धि नाश से ज्ञान का प्रकाश होता है और यह ज्ञान तब तक बढ़ता है, जब तक उपासक, भक्त, विवेकख्याति= ईश्वर, जीव, प्रकृति इन अनादि तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेता।
इस वचन से स्पष्ट है ईश्वर-प्राप्ति के निमित्तभूत यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि ये ८ अंग हैं। इन अंगों का अनुष्ठान करके ईश्वर की उपासना करने वाला अपने चित्त को पवित्र करके एवं अविद्या, राग, द्वेष आदि की बाधाओं से अपने को हटाकर ईश्वर-प्राप्ति का सामर्थ्य जुटा लेता है।
ईश्वर की प्राप्ति के लिये पत्र, पुष्प आदि का चढ़ावा अपेक्षित नहीं है, तन्मयता, स्थिरता, एकाग्रता अपेक्षित है। यह स्थिरता, एकाग्रता ही ईश्वर-प्राप्ति का उत्तम उपाय है, यह उपाय धारणा व ध्यान कहा जाता है। महर्षि पतञ्जलि ने
देशबन्धश्चित्तस्य धारणा, तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्
योग. ३/१, २
इन सूत्रों द्वारा ईश्वर-प्राप्ति के इन सुनिश्चित उपायों का निर्देश किया है। महर्षि का निर्देश है कि ईश्वर की प्राप्ति के लिये चित्त की धारणा= चित्त को स्थिर करना, हृदय, मस्तिष्क भूमध्य आदि स्थानों में चित्त को रोकना और रोके हुए स्थान में ईश्वर के गुण, कर्म एवं स्वभाव का एकतानता= निरन्तर चिन्तन करना होता है। तब ईश्वर का ध्यान होता है, उसकी अनुभूति व प्राप्ति होती है।
ईश्वर की प्राप्ति के लिए, उसके ध्यान के लिए चित्त की स्थिरता एवं ईश्वर के स्वरूप का चिन्तन महत्त्वपूर्ण कार्य हैं। बाहरी चढ़ावे का आडम्बर अनावश्यक प्रयत्न है। तभी तो श्री शंकराचार्य को भी बरबस कहना पड़ा-
निर्लेपस्य कुतो गन्धं पुष्पं निर्वासनस्य च।
निर्गन्धस्य कुतो धूपं स्वप्रकाशस्य दीपकम्।।
नित्यतृप्तस्य नैवेद्यं निष्कामस्य फलं कुत:।
ताम्बूलं च विभो कुत्र नित्यानन्दस्य दक्षिणा।।
शंकराचार्य, परापूजा, पृ. २३, २५
अर्थात् निर्लेप के लिये गन्ध व्यर्थ है, वासना रहित के लिये पुष्प व्यर्थ हैं, गन्ध न लेने वाले के लिये धूपबत्ती व्यर्थ है एवं स्वयं प्रकाशमान् के लिये दीपक व्यर्थ है।
नित्य तृप्त को नैवेद्य देना, भोग लगाना कैसा? निष्काम को फल देना कैसा? सर्वव्यापक को पान देना और नित्यानन्द स्वरूप को दक्षिणा देना कैसा? अर्थात् ये सभी क्रिया कर्म निराकार, सर्वव्यापक के प्रति करना किसी भी प्रकार उचित नहीं हैं।
शंकराचार्य के इस कथन से स्पष्ट है कि सर्वव्यापक शिव, शंकर आदि स्वरूप व नाम वाले ईश्वर को पुष्प चढ़ाने के कार्य व्यर्थ व अनुपयुक्त हैं।
शिवभक्तो! बस! सच कहना! क्या आप आक, धतूरे आदि के चढ़ावे से शिव तक पहुँच पाये? नहीं, नहीं पहुँच पाये। भक्तो! पुष्प चढ़ाना मना नहीं है, चढ़ाना है, पर कौन सा पुष्प चढ़ाना है? पुष्प वह चढ़ाना है जिस पर केवल आपका अपना ही स्वत्व हो, जिसे कोई भी अन्य मनुष्य परस्पर न छीन सके। वह पुष्प कौनसा होगा? जिस पर आपका अपना ही स्वत्व है, अन्य का नहीं है।
जिस पुष्प पर मात्र आपका अपना स्वत्व है, उस पुष्प की पहचान लगभग पौने दो शताब्दी पूर्व महर्षि दयानन्द ने की थी। महर्षि दयानन्द ने ईश्वर को अर्पित किये जाने वाले पुष्प की ही पहचान नहीं की, ईश्वर के स्वरूप की भी पहचान की थी। महर्षि दयानन्द ने मूलशंकर के रूप में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को सम्पन्न होने वाली शिवरात्रि का व्रत रखा था। उन्होंने भी पत्र, पुष्प आदि नैवेद्य के चढ़ावे को चढ़ाया व बहुतों को चढ़ाते देखा, पर अपने प्रारब्ध के संस्कारों से अच्छी प्रकार समझ लिया कि यह शिवलिंग की बटिया न तो जगद्धारक शिवेश्वर है और न ही जगद्धारक शिवेश्वर की प्राप्ति का उपाय है। शिव मंदिर में मूषकों द्वारा की जा रही मलिनता से उद्विग्न होकर मूलशंकर ने शिवरात्रि का व्रत तोड़ दिया। सत्य शिव को खोजा, सत्य शिव के पुष्प को भी खोजा। महर्षि दयानन्द ने जो पुष्प खोजा, निकाला, उस पुष्प का अपनी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के उपासनाविषय में बड़ी ही गम्भीरता से निर्देश किया है। ईश्वर प्राप्ति विषयक उनके शब्द हैं-
यह उपासनायोग दुष्ट मनुष्य को सिद्ध नहीं होता, क्योंकि जब तक मनुष्य दुष्ट कामों से अलग होकर, अपने मन को शान्त और आत्मा को पुरुषार्थी नहीं करता, तथा भीतर के व्यवहारों को शुद्ध नहीं करता, तब तक कितना ही पढ़े वा सुने, उसको परमेश्वर की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। ऋ.भा.भू.उपा. पृ. १९५
जीव को परमेश्वर के लिए कौनसा पुष्प देना है? इसका स्पष्टीकरण करे हुए महर्षि दयानन्द ने छान्दोग्योपनिषद् का महनीय वचन उद्धृत किया है-
अथ यदिदमस्मिन् ब्रह्मपुरे दहरं पुण्डरीकं वेश्म दहरोऽस्मिन्नन्तराकाशस्तस्मिन्यदन्तस्तदन्वेष्टव्यं तद्वाव विजिज्ञासिव्यमिति।
छान्दो. ८/१/१
वचन का अर्थ है कि यह शरीर ब्रह्म की नगरी है, ब्रह्मपुर है, इसमें एक दहर= छोटा सा, पुण्डरीकम्= कमल के सदृश, वेश्म= हृदय रूपी गृह मंदिर है। इस छोटे से हृदय मंदिर के अन्दर, आकाश= अवकाश है, उस हृदयाकाश में जो उसके अन्दर छिपा है, उसे, अन्वेष्टव्यम्= ढँूढऩा, खोजना चाहिए, उसकी ही, विजिज्ञासितव्यम्= जानने की इच्छा करनी चाहिए।
महर्षि दयानन्द द्वारा ढूृँढ़े गये पुष्प के ज्ञापक वचन का तात्पर्य है कि सर्वत्र व्यापक शिव परमेश्वर हृदय में विद्यमान है। जिस हृदय को उपनिषद् में, पुण्डरीकम्= कमल नाम दिया गया है। उस शिव परमेश्वर को वह हृदय रूपी कमल पुष्प ही समर्पित करना है। हृदय रूपी कमल समर्पित करने से ही ईश्वर मिलेगा। पंक में उत्पन्न पुष्प को भी पुण्डरीकम्= कमल पुष्प कहते हैं, पर उस कमल पुष्प को शिव बटिया पर चढ़ाने से ईश्वर कभी नहीं मिलेगा।
सर्वव्यापक ईश्वर तो शिव बटिया पर आक, धतूरे के पुष्पों को भी चढ़ाने से नहीं मिलेगा। ईश्वर तो, अर्क= प्राणों की आहुति से मिलेगा। वेद का मंत्र है-
स प्रत्नथा कविवृध इन्द्रो वाकस्य वक्षणि:।
शिवो अर्कस्य होमन्यस्मत्रा गन्त्ववसे।।
ऋ. ८/६३/४
अर्थात् वह प्रभु इन्द्र:= ज्ञान प्रकाशक है, प्रत्नथा= अनादि प्रवाह से पहले से ही विद्यमान है, क्रान्तदर्शियों को बढ़ाने वाला है, वाणी, वेदवाणी का प्रकाशक है, वह ही, शिव:= कल्याणकारी है, अर्कस्य होमनि= प्राणों की (प्राणो वा अर्क:, शत. ब्रा. १०/१/२३) आहुति देने पर, अस्मत्रा अवसे= हमारी रक्षा के लिये, आ गन्तु= प्राप्त होता है।
मन्त्र का तात्पर्य स्पष्ट है कि जो ज्ञानवान् अनादि ईश्वर वेदज्ञान देता है, शिव:= कल्याण करता है, वह परमात्मा अर्कस्य होमनि= प्राणों की आहुति देने से प्राप्त होता है यानी प्राणायाम= श्वास-प्रश्वास की गति को यथाशक्ति रोकते हुए मन की चंचलता को रोक देने पर प्राप्त होता है।
उपनिषद् व वेद में आये पुण्डरीकम् और अर्कस्य शब्द यद्यपि क्रमश: कमल और आक पुष्पों के भी वाचक हैं, परन्तु ईश्वर प्रसंग में इन पंक उत्पन्न कमल और आक वृक्ष के फूलों का अर्थ-सम्बन्ध असंभव है, क्योंकि वह शिव कल्याणकारी ईश्वर निराकार है। निराकार के लिये ये पुष्प अनुपयुक्त हैं।
शिव कल्याणकारी ईश्वर की इस सृष्टि में पुष्पों की सृष्टि बड़ी सुहानी, अद्भुत, सुरभित, सुरम्य सृष्टि है। यह पुष्प सृष्टि हम मनुष्यों के लिए है। पुष्प विकसने पुष्प सृष्टि स्वयं खिल रही है, विकस रही है, विहस रही है। मनुष्यों को भी हँसने, विकसने के संदेश दे रही है। पुष्प सृष्टि का हँसने का यह संदेश परमात्मा द्वारा प्रेरित है। प्रसन्नता और हँसी का यह राज है कि धूप हो, बरसात हो, भीषण ठण्ड हो, बस खिलते रहो, हँसते रहो। आकाश की छत्त के नीचे गर्मी, सर्दी, वर्षा के थपेड़ों को सहते हुए कमल, आक, धतूरा, गेंदा, गुलाब, चमेली, बेला आदि के पुष्प निर्भय होकर तटस्थ खड़े हैं, किसी भी विपत्ति की उन्हें कोई परवाह नहीं है।
पुष्पों का राजा गुलाब काँटों के बीच गुलाबी परिधान में खिल रहा है। उसके तने को देखें, पत्तों, कलियों, अधकली पंखुडिय़ों को देखें, विकसित आकार को देखें, उसके किसी भी अवयव से नहीं प्रतीत हो रहा कि वह काँटों के बीच में है। गुलाब तो एक मानक है। गेंदा, चमेली आदि जितने भी पुष्प हैं, सभी के सभी उन्हीं संकटों की परिस्थितियों में ही विद्यमान हैं, पर सभी खिल रहे हैं, विकस रहे हैं, विहस रहे हैं, किसी को कोई चुभन नहीं है। फूलों की इस पुष्पिता ने कवि को यह कहने के लिए विवश कर दिया-
फूलों से तुम हँसना सीखो, भौंरों से तुम गाना।
गन्ध, सुगन्ध से भरपूर इन पुष्पों का मनुष्यों के लिये संदेश है कि आपत्ति, विपत्ति संकट में अपने अस्तित्व को न खोओ। जीवन्त रहते हुए परिस्थिति का मुकाबला करो। शिव परमेश्वर का पुष्पों का उपहार उत्तम उपहार है, यह फेंकने, कचरने के लिए नहीं। मानसिक उत्थान के साथ-साथ इन पुष्पों का यह भी उपादान है कि हम इनके द्वारा अपने शरीर को भी स्वस्थ, नीरोग बनावें। इन पुष्पों के अनेकों गुण हैं।
पुण्डरीक= कमल की केसर सर्वविष को दूर करती है, कमल की जड़ कफनाशक है, कमलगट्टा वमन रोकता है। अर्क= धतूरा कृमि, विष आदि को नष्ट करता है। आक के पुष्प, फल आदि से विष, विसूचिका, रक्तविकार आदि की नाशक औषधियाँ बनती हैं। गुलाब की पंखुडिय़ों से बना गुलकन्द हृदय, फेंफड़ा, गुर्दा, आंत आदि को शक्ति प्रदान करता है।
शिवभक्तो! इन आक, धतूरे, कमल के पुष्प अपने लिये रखो, सर्वव्यापक शिव कल्याणकारी ईश्वर को अर्पित न करो। सर्वव्यापक महानों के महान् शिव ईश्वर के लिए तो परोपकारी महर्षि दयानन्द द्वारा निर्दिष्ट अपना हृदय कमल अर्पण कर दो। सुख, शान्ति के वैभव से अपनी झोली भर लो। दयानन्द का उपकार मानो, जिसने अपना तो लोक, परलोक सुधारा ही, पूरी मानव जाति का भी लोक, परलोक सुधारा।
पाणिनि कन्या महाविद्यालय,
वाराणसी-१० (परोपकारी - मार्च द्वितीय, २०११)